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________________ प्रतीक-योजना प्रकृतिका यह रूप भी पाया जाता है। जीवनकी समस्याओका समाधान प्रकृतिके अंचलसे जैन कवियोने ढूँढा है। अतः उपयोगितावादी और उपदेशात्मक दोनो ही दृष्टिकोण आधुनिक जैन प्रबन्ध काव्योमे अपनाये गये है। 'वर्द्धमान', 'प्रतिफलन' और 'राजुल' में भी प्रकृतिके सवेदन गील रूपोंकी सुन्दर अभिव्यजना की गई है। प्रतीक-योजना कोई भी भावुक कवि तीव्र रसानुभूविके लिए प्रतीक-योजना करता है | प्रतीक पद्धति भापाको भाव-प्रवण बनाती ही है, किन्तु भावोकी यथार्थ अमिव्यञ्जना भी करती है । वयं विपयके गुण या भाव साम्यरखनेवाले बाह्य चिह्नोको प्रतीक कहते है। मानव-हृदयकी प्रस्तुत भावनाओकी अभिव्यक्ति के लिए साम्यके आधारपर अप्रस्तुत प्राकृतिक प्रतीकोका उपयोग किया जाता है। ये प्रतीक प्रकृतिक क्षेत्रसे चुने हुए होनेके कारण इन्द्रियगम्य होते हैं और अमूर्त भावनाओकी प्रतीति करानेमे बहुत दूर तक सहायक होते हैं। वास्तविकता यह है कि जब तक हृदयके अमूर्तभाव अपने अमूर्तरूपमें रहते हैं, वे इतने सूक्ष्म होते हैं कि इन्द्रियों के द्वारा उनका सजीव साक्षात्कार नहीं हो सकता है। रससिद्ध कवि प्रतीकोके साँचेमे उन भावनाओको दालकर मूर्त रूप दे देता है, जिससे इन्द्रियो द्वारा उनका सजीव प्रत्यक्षीकरण होने लगता है। जो अमूर्त भावनाएँ हृदयको स्पर्श नहीं करती थी, वे ही हृदयपर सर्वाधिक गम्भीर प्रभाव छोड़ने में समर्थ होती है। , प्रतीक-योजनाके प्रमुख साधक उपमा, रूपक, अतिशयोक्ति तथा सारोपा और साध्यावसाना लक्षणा हैं। सारोपा लमणामे उपमान और उपमेय एक समान अधिकरणवाली भूमिकामें उपस्थित रहते है तथा साध्यावसानामे उपमेयका उपमानमे अन्तर्भाव हो जाता है। सादृश्यमूलक सारोपाकी भूमिकापर रूपकालकार द्वारा प्रतीक विधान और सादृश्य
SR No.010039
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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