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________________ हिन्दी-जैन साहित्य-परिशीलन ना अवगाहन ते शुद्ध होर पानी, भागचन्द्र निहत्र घटमाहि या प्रमानी । प्रकृतिक अधिक चित्र इनकी कविता में पाये जाते हैं । यद्यपि विशुद्ध रुपम प्रविका चित्रण इनकी अत्रिनामें नहीं हुआ है तिर माउसमानीका इतना नुन्दर व्यवहार किया गया है कि जिम ग्रन्तुतची अमिन्टनामें चार गेंद लग गये हैं। वर्ग होनेपर गरों और शीतलना हा नानी है। निदान आतापले सन्तम दिनी शान्त हो जाती है। नव यग्ना पराज्य देखकर ग्लानि कारण अपना मुँह वादम छिग लेना है। थाकासमन्डल धन-तिमिरले आच्छादित हो जाता है। ना वहाँ विल चमकती हुई दिखलाई पड़ता है। नई नाल बाद आ गती है। मांस बल व जानी है और नवीन धानांक पाच लहलहान लगते हैं। मेदिनी सर्वत्र हरी भी दिखलाई पड़ती है। ऋत्रि इन का द्वारा निवाणीन महक्षाका रहस्योद्घाटन करता है। वरसत ज्ञान सुनार हो, श्रीविन मुख बन डॉ। मीवल होत सुबुद्धमेदिनी, मिटन नवासपपार । न्यावाद नत्र दामिनी दमकहीं होत निनाद गम्भीर । करुणा नही वह बहुदिशि ते, भरी सी दोई नार ॥ मेव वटा सम श्री विनवानी । स्यात्पद चपला चमकत वामैं, बरसन झान मुपानी । धर्मसन्त बाते बहु बाद, शिव आनन्द पलानी । मोहन धूल डी सब बात, क्रोवानल मुत्रुझानी । आधुनिक नशायाम कविताका नमिक त्या स्त्यान्मन्दकेल्प मी प्रविन चित्रण किय गया है। निगश होने पश्चात् सहानुभूतिक रूपमें कोई भी ऋवि प्रतिको पता है। इन बागन
SR No.010039
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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