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________________ हिन्दी जैन काव्यों में प्रकृति-चित्रण कवि आनन्दघनको भी प्रकृतिकी अच्छी परख है । आपने मानव भावोकी अभिव्यक्तिकै माध्यमके रुपमे प्रस्तुत प्रतीकोके लिए प्रकृतिका सुन्दर आयोग किया है। ज्ञानरूपी सूर्योदयके होते ही आत्माकी क्या अवस्था हो जाती है कविने इसका बहुत ही सुन्दर चित्रण किया है । प्रातःकालको रूपक देकर ज्ञानोदयका कितना मर्मस्पर्शी चित्रण किया है। मेरे घट ज्ञान भाव भयो भोर । चेतन aaur चेतन चकवी, भागौ विरह कौ सोर ॥ फैली चहुँ दिशि चतुर भाव रुचि, मिठ्यौं भरम तमजोर । आपनी चोरी आपहि जानत, और कहत न चोर ॥ अमल कमल विकलित भये भूतल, मंद विशद शशि कोर । आनन्दघन एक बल्लभ लागत, ओर न लाख किरोर ॥ १८९ रूपक अलकारके रूपमे कवि भागचन्दने अपने अधिकाश पदोमे प्रकृतिका चित्रण किया है । कविने उपमा और उत्प्रेक्षाकी पुष्टिके लिए प्रकृतिका आश्रय ग्रहण करना उचित समझा है । कुछ ऐसे दृश्य है जिनका मानव जीवनसे घना सम्बन्ध है । कुछ ऐसे भी भाव - चित्र है जो हमारे सामुदायिक उपचेतन मनमे जन्मकालसे ही चले आते है । जिनवाणी, गुरुवाणी, मन्दिर, चैत्य आदि मानवके मनको ही शान्त नही करते किन्तु अन्तरंग तृप्तिका परम साधन बनते हैं । प्रत्येक भावुक हृदयकी श्रद्धा उक्त वस्तुओके प्रति स्वभावतः रहती है । कवि वीतराग वाणीको गगाका रूपक देकर कहता है साँची तो गंगा यह वीतरागी वाणी, अविच्छa धारा निज धर्मकी बहानी । जामें अति ही बिमल अगाध ज्ञान पानी, जहाँ नहीं संशयादि पंककी निशानी ॥ सप्त भंग जहं तरंग उछलत सुखदानी, सम्वचित मराल वृन्द रमैं नित्य ज्ञानी ।
SR No.010039
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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