________________
१९२
१९२ हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन मूलक साध्यावसानाकी भूमिकापर अतिशयोक्ति अलकार द्वारा प्रतीकविधान किया जाता है। यह प्रतीक विधान कही भावोकी गम्भीरता प्रकट करता है तो कहीं स्वरूपकी स्पष्टता । स्वरूप और भाव दोनोंकी विभूति बढ़ानेवाली प्रतीक-योजना ही अमूर्तको मूर्तरूप देकर सूक्ष्म भावनाओका साक्षात्कार करा सकती है।
प्रतीक विधानमें प्रतीककी स्वाभाविक बोधगम्यताका खयाल अवश्य रखना पड़ता है। ऐसा न होनेसे वह हमारे हृदयक सूक्ष्म रागो एव भावोको उद्दीस नहीं कर सकता है। जिस वस्तु, व्यापार या गुणके सादृश्यमे जो वस्तु, व्यापार या गुण लाया जाता है उसे उस भावके अनुकूल होना चाहिये। अतः प्रस्तुतकी भावाभिव्यजनाके लिए अप्रस्तुतका प्रयोग रसोद्बोधक या भावोचेजक होनेसे ही सच्चा प्रतीक वन सकता है।
भिन्न-भिन्न संस्कृतियोके अनुसार साहित्यमे रसोत्कर्पके लिए कवि भिन्न-भिन्न प्रतीकोंका प्रयोग करते हैं। सभ्यता, शिष्टाचार, आचारव्यवहार, आत्मदर्शन प्रभृति के अनुसार ही कलामे प्रतीकोकी उद्भावना की जाती है। हिन्दी जैन काव्योमें उपमानके रूपमे प्रतीकोका अधिक प्रयोग किया गया है । यद्यपि प्रतीक-विधान के लिए साध्यके आधारकी आवश्यकता नहीं होती, केवल उसमे भावोद्वोधन या भावप्रवणताकी शक्ति रहनी चाहिये, तो भी प्रभाव साम्यको लेकर ही प्रतीकोंकी योजना की जाती है । कोरे साध्य-मूलक उपमान मावोत्तेजन नहीं करा सकते हैं । आकारप्रकार या नाप-जोखकी साता सामने एक मूर्ति ही खड़ी कर सकती है, पर भावोजन नहीं। अतएव कवि मार्मिक अन्तर्दृष्टि द्वारा ऐसे प्रतीकोंका विधान करता है, जो प्रस्तुतकी भावाभिव्यञ्जना पूर्णरुपसे कर सके। __ मनीषियोने भावोत्पादक (Emotional Symbols) और विचारोत्पादक (Intelectual Symbols) ये दो मेद प्रतीकोके किये है । जैनकायोमे इन दोनों भेदोंमेसे किसी भी भेदके शुद्ध उदाहरण