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प्रतीक-योजना
१९३ नहीं मिल सकेगे। भावोत्पादक प्रतीकोमे विचारोका मिश्रण और विचारोसादक प्रतीकोमें भावांकी स्थिति बनी ही रहती है। विचार और भाव इतने भिन्न भी नहीं है, जिससे इन्हे सीमारेखा अकित कर विभक्त किया जा सके । मुविधाके लिए जैन साहित्यमें प्रयुक्त प्रतीकोंको चार भागोमे विभक्त किया जाता है-विकार और दुःख विवेचक प्रतीक, आत्मबोधक प्रतीक, शरीरबोधक प्रतीक और गुण और सर्वसुखबोधक प्रतीक । यद्यपि तत्त्वनिरूपण करते समय कुछ ऐसे प्रतीकोका भी जैन कवियोंने आयोजन किया है, जिनका अन्तर्भाव उक्त चार वाम नहीं किया जा सकता है, तो भी भावोचेजनमे सहायक उक्त चारो वर्गके प्रतीक ही है।
विकार और दुःख विवेचक प्रतीकोंमे प्रधान भुजग, विप, मतग, तम, कम्बल, सन्ध्या, रजनी, मधुछत्ता, ऊँट, सीप, खैर, पचन, तुष, लहर, शूल, कुब्बा आदि है।
भुजंग प्रतीकका प्रयोग तीन विकारोको प्रकट करनेके लिए किया है। राग-द्वेष भाव कर्मको जिनसे यह आत्मा निरन्तर अपने स्वरूपको विकृत करती रहती है। मिथ्यात्व भावको, जिससे आत्मा अपने स्वरूपको विस्मृत हो, पर भावोको अपना समझने लगती है और तीव्र विषयामिलापाको, जिससे नवीन काँका अर्जन होता रहता है। ये तीनो ही विकार भाव आत्माकी परतन्त्रताके कारण है, सर्पके समान भयकर
और दुखदायी हैं। अतएव सपं प्रतीक द्वारा इन विकारोंकी भयकरता अभिव्यक की गयी है। इस प्रतीकका प्रयोग संस्कृत और प्राकृत जैन साहित्यमें मी पाया जाता है, किन्तु हिन्दी भाषाके जैन कवियोने रागद्वपकी सूक्ष्म भावनाकी अभिव्यक्ति इस प्रतीक द्वारा की है।
विप प्रतीक विषयामिलापाकी भयकरताका द्योतन करानेके लिए आया है। पचेन्द्रिय विपयोंकी आधीनता विवेक बुद्धिको समाप्त कर देती
१. ब्रह्मविलास पृ० २६०। २. नाटक समयसार पृ० १७, २४, १८॥