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________________ हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन है। विप मृत्युका कारण माना जाता है, पर विपयामिलापा मृत्युसे भी बढ़कर है। यह एक जन्मकी ही नहीं किन्तु जन्म-जन्मान्तरोकी मृत्युका कारण है। विषयाधीन व्यक्ति ही अपने आचार-विचारसे च्युत होकर आत्मिक गुणोका हास करता है। जिस प्रकार विपका प्रभाव मूर्छा माना है, उसी प्रकार विपयाभिलाषासे भी मूर्छा आती है। विपयामिलापाकी मृा स्थायी प्रभाव रखनेवाली होती है, अतः यह आत्मिक गुणोको विशेष रूपसे आच्छादित करती है। कवि वनारसीदास और भैया भगवतीदासने विप प्रतीकका प्रयोग विपयेच्छाके कुप्रभावको अभिव्यक्त करनेके लिए किया है। अपभ्रंश भायाकी कविताओं मे भी यह प्रतीक आया है। मतंग प्रतीक अज्ञान और अविवेकके मावको व्यक्त करनेके लिए आया है | अज्ञानी व्यक्तिकी क्रियाएँ मदोन्मत्त हाथीके तुल्य ही होती है। जो विपवान्ध हो चुका है, वह व्यक्ति विवेकको खो देता है । कवि दौलतरामने मतग प्रतीकका प्रयोग तीव्र विपयामिलापाकी अभिव्यजनाके लिए किया है। पचेन्द्रियके मोहक विपय किसी भी प्राणीकै विवेकको आच्छादित करनेमें सक्षम है। जो इन विषयों के अधीन रहता है, वह जानशक्तिके मूर्छित हो जानेसे अज्ञवत् चेष्टाएँ करता है। उसके क्रिया कलाप वहिविगयक ही होते हैं । ____वम' अज्ञान और मोहका प्रतीक है | जिस प्रकार अन्धकार सघन होता है, दृष्टिको सदोप बनाता है, उसी प्रकार अजान और मोह भी आत्मदृष्टिको सदोप बनाते है। आत्माकै अस्तित्वमे ढ़ विश्वास न कर अतत्त्वरूप श्रद्धान करना मिथ्यात्व है। इसके प्रभावसे जीवको स्वपरका विवेक नहीं रहता है। इसके दोपोकी अभिव्यञ्जना कवि द्यानतरायने - १. वनारसी-विलास पृ० १४०-१५३ । २. ब्रह्मविलास, ग्रानतविलास, वृन्दावन-विलास आदि ।
SR No.010039
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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