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हिन्दी जैन काच्या में प्रकृति-चित्रण
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प्रदान करती चली आ रही है। इसके लिए वन, पर्वत, नदी, नाले, उषा, संध्या, रजनी, ऋतु, सदासे अन्वेषणके विषय रहे है। हिन्दीके जैन कवियोंको कविता करनेकी प्रेरणा जीवनकी नश्वरता और अपूर्णताके अनुमवसे ही पास हुई है। इसीलिए हर्ष-विषाद, सुख-दुःख, घृणा-प्रेमका जीवनमें अनुभवकर उसके सारको ग्रहण करनेकी ओर कवियोंने सकेत किया है।
भावोंकी सचाई (Sincerity) या सद्यः रसोद्रेककी क्षमता कोई भी कलाकार प्रकृतिके अचलसे ही ग्रहण करता है। इसी कारण जीवनके कवि होनेपर भी जैन कवियोकी सौन्दर्यग्राहिणी दृष्टि प्रकृतिकी
ओर भी गई है और उन्होने प्रकृतिक सुन्दर चित्र अकित किये हैं। शान्तरसके उद्दीपन और पुष्टिके लिए जैन कवियों ने प्रकृतिकी सुन्दरतापर मुग्ध होकर ऐसे रमणीय चित्र खीचे है जो विश्वजनीन भावोकी अभिव्यक्तिमें अपना अद्वितीय स्थान रखते है। प्रकृतिकी पाठशाल प्रत्येक सहृदयको निरन्तर शिक्षा देती रहती है। यही कारण है कि मानव और मानवेतर प्रकृतिका निस्पण कुशल कलाकार तल्लीनता और रसमग्नताके साथ करता ही है।
त्यागी जैन कवियोमे अनेक कवि ऐसे हैं, जिन्होंने अपनी साधना के लिए वनाश्रम ग्रहण किया है। प्रकृतिके खुले वातावरणमे रहने के कारण संध्या, उपा और रजनीके सौन्दर्य से इन्होंने अपने भीतरके विराग को पुष्ट ही किया है। इन्हे सध्या नवोदा नायिकाके समान एकाएक वृद्धा, कल्टी रजनीके रुपमे परिवर्तित देखकर आत्मोत्थानकी प्रेरणा प्राप्त हुई
और इसी प्रेरणाको अपने काव्यम अकित किया है। प्रकृतिके विभिन्न स्मॉमें सुन्दरी नर्तकी के दर्शन भी अनेक कवियों ने किये है, किन्तु वह नर्तकी दूसरे क्षणमे ही कुरुपा और वीभत्ससी प्रतीत होने लगती है। रमणीक वैश कलाप, सल्न कपोलकी लालिमा और साजसजाके विभिन्न स्पोमे विरक्तिकी भावनाका दर्शन क्ला कक्यिोंकी अपनी विशेषता है।