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हिन्दी जैन साहित्य- परिशीलन
परन्तु यह विरक्ति नीरस नहीं है, इसमें भी काव्यत्व है । भावनाओं और कल्पनाओंका सन्तुलन है । महलोंकी चकाचौंध, नगरके अशान्त कोलाहल और आपसके रागद्वेषोसे दूर हटकर कोई भी व्यक्ति निरावरण प्रकृतिमें अपूर्व शान्ति और आनन्द पा सकता है । मन्द-मन्द पवन, विशाल वन प्रान्त और हरी हरी वसुन्धरा व्यक्तिको जितनी शान्ति दे सकती है, उतनी जन-संकीर्ण भवन नाना कृत्रिम साधन तथा नृपुरोकी घुनघुन कभी भी नही ।
कवि अपने काव्यमे प्रकृतिके उन्हीं रम्य दृश्योंको स्थान देते है जो मानवी हृदय चीनके तारोको झनझना दे । ग्राम-सौन्दर्य और वन-सौन्दर्यका चित्रण अपरिग्रही कवि या ग्रहीत परिमाण परिग्रही कवि जितना कर सकते हैं, उतना अन्य नही । जैन साहित्यमे वन-विभूति और नदी-नालेोपर, जहॉ दिगम्बर साधु ध्यान करते थे, उन प्रदेशोंकी तस्वीरें बड़ी ही सूक्ष्मता और चतुराई के साथ खींची गयी हैं। ऐसा प्रतीत होगा कि गतिशील प्रकृति स्वय मूर्त्तमान रूप धारण कर आ गई है । विपयासक्त व्यक्ति प्रकृतिके जिस रूपसे अपनी वासनाको उद्बुद्ध करता है विरक्त उसी रूपसे आत्मानुभूतिकी प्रेरणा प्राप्त करता है ।
अपभ्रंश भाषाके जैन कवियोने अपने महाकाव्योंमें आलम्बन और उद्दीपन विभावके रूपमे प्रकृति चित्रण किया है । पट्ऋतु वर्णन, रणभूमि वर्णन, नदी-नाले वन पर्वतका चित्रण, उपा-सन्ध्या-रजनी. प्रभातका वर्णन, हरीतिमा आदिका चित्राकन सुन्दर हुआ है । इस प्रकृति-चित्रणपर संस्कृत काव्योंके प्रकृति-चित्रणकी छाप पड़ी है। अपभ्रश भापाके जैन कवियोने नीति-धर्म और आत्मभावनाकी अभिव्यक्ति के लिए प्रकृतिका आलम्बन ग्रहण किया है । बिम्व और प्रतिविम्ब भावसे भी प्रकृतिके भव्य चित्रोंको उपस्थित किया है ।
पुरानी हिन्दी, ब्रजभाषा और राजस्थानी ढुंढारी भाषामे रचित प्रबन्ध काव्योंमें प्रकृतिका चित्रण बहुत कुछ रीतिकालीन प्रकृति-चित्रणसे