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हिन्दी जैन काव्यों में प्रकृति-चित्रण
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मिलता जुलता है । इसका कारण यह है कि जैन कवियोने पौराणिक कथावस्तुको अपनाया, जिससे वे परम्परा भुक्त वस्तु वर्णनमे ही लगे रहे और प्रकृतिके स्वस्थ चित्र न खीचे जा सके । शान्तरसकी प्रधानता
के कारण जैन चरित काव्यो में शृङ्गारकी विभिन्न स्थितियोका मार्मिक चित्रण न हुआ, जिससे प्रकृतिको उन्मुक्त रूपमे चित्रित होनेका कम ही अवसर मिला ।
परवर्ती जैन साहित्यकारोमे वनारसीदास, भगवतीदास, भूधरदास, दौलतराम, बुधजन, भागचन्द, नयनमुख आदि कवियोकी रचनाओं में प्रकृतिकै रम्यरूपाको भावो द्वारा संवारा गया है । कवि वनारसीदासने कुबुद्धिकी तुलना कुब्जासे और सुबुद्धिकी तुलना राधिकाके साथ की है। यहाँ रूप चित्रणमे प्रकृतिका विम्ब प्रतिविम्ब भाव देखने योग्य है । कुटिल कुरूप अंग लगी है पराए संग, अपनो प्रधान कारे आपुहि विकाई हैं । गहे गति अंधकी-सी सकती कमंधकी-सी, बंधataria करे धंधही घाई है ॥ रॉडकीसी रीति लिए भाँडकीसी मतवारी, सॉड ज्यों सुछन्द ढोले मॉडकीसी जाई है। घरको न जाने भेद करे परधानी खेत, या दुर्बुद्धि दासी कुन्ना कहाई है ॥
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रूपकी रसीली भ्रम कुलफकी कीली सील, सुधाके समुद्र झीली सोली सुखदाई है । प्राची ज्ञानमानकी अजाची है निदानकी सुराची नरवाची ठोर साची ठकुराई है ॥ धामकी खबरदार रामकी रमनहार, राधारस पंथिनीमे ग्रन्थनिमें गाई है ।