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१८४ हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन
संतनिकी मानी निरवानी नूरकी निसानी,
याते सद्बुद्धि रानी राधिका कहाई है। कवि बनारसीदासने प्रकृतिको उपमान और उत्प्रेक्षा अलकारी द्वारा चित्रमय रूपमे प्रस्तुत किया है। कविने शारीरिक मासलताके स्थान पर भावात्मकता, विचित्र कल्पना और स्थूल आरोपवादिताके स्थान पर चित्रमयता और भावप्रवणताका प्रयोग किया है। प्रकृतिके एक चित्रको स्पष्ट करनेके लिए दूसरे दृश्यका आश्रय लिया गया है फिर भी रग-रूपो, आकार-प्रकार एव मानवीकरणमें कोई बाधा नहीं आई है। सादृश्य और सयोगके आधारपर सुन्दर और रमणीय भावोकी अभिव्यजना सौन्दर्यानुभूतिकी वृद्धि परम सहायक है । प्रकृतिके विभिन्न रूपोके साथ हमारा भावसयोग सर्वदा रहता है, इसी कारण कवि बनारसीदास्ने असंलक्ष्य क्रमसे प्रकृतिका सुन्दर विवेचन किया है।
उदाहरणालकारके रूपमे प्रकृतिका चित्रण बनारसीदासके नाटक 'समयसार मे अनेक स्थलो पर हुआ है। ग्रीष्मकालमे पिपासाकुल मृग बालूके समूहको ही भ्रमवश जल समझकर इधर उधर भटकता है, अथवा पवनकै सचारसे स्थिर समुद्रके जलमे नाना प्रकारकी तरगे उठने लगती हैं और समुद्रका जल आलोडित हो जाता है। इसी प्रकार यह आत्मा भ्रमवश कर्माका कर्त्ता कही जाती है और पुद्गलके ससर्गसे इसकी नाना प्रकारकी स्वभाव विरुद्ध क्रियाएँ देखी जाती हैं । कवि कहता है
जैसे महाधूपकी तपतिम तिसी यो सृग, अमनसा मिथ्याजल पिवनको धाये है। जैसे अन्धकार मॉहि जेवरी निरखि नर, भरमसों डरपि सरप मानि आयो है ॥ अपने सुभाय जैसे सागर सुधिर सदा, पवन संयोग सो उछरि अकुलायो है।