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हिन्दी जैन काच्या प्रकृति-चित्रण
तैसे जीव बड़ नो अव्यापक सहज रूप,
भरमसों करमको कर्ता कहायो है। वर्षा ऋतुमे नदी, नाले और तालाब वाढ आ जाती है, जलके तेज प्रवाहम तृण-काठ और अन्य छोटे-छोटे पदार्थ वने लगते है । वादल गरजते और बिजली चमकती है। प्रकृति सर्वत्र हरी-भरी दिखलाई पडती है। कवि बनारसीदासने आत्मजानीकी रीतिका वर्पाके उदाहरण द्वारा उपदेशात्मक रूपसे कितना सुन्दर चित्रण किया है
ऋतु बरसात नदी नाले सर जोर चढे, बढे नॉहि मरजाद सागरके फैल की। नीरके प्रवाह तृण काठ वृन्द बहे नात, चित्रावेल आई चढ़नाहि कहूँ गैल की । वनारसीदास ऐसे पंचनके परपंच, रंचक न संक आवै वीर बुद्धि छैल की। कुछ न भनीत न क्यो प्रीतिपर गुणसेती,
ऐसी रीति विपरीत अध्यात्म शैल की। जब प्रकृति मानवीय भावोंके समानान्तर भावात्मक-व्यजन अथवा सहचरणके आधारपर प्रस्तुत की जाती है, उस समय उसे विशुद्ध उद्दीपनके अन्तर्गत नहीं रक्खा जा सकता। आलम्बनकी स्थितिमें व्यक्ति अपनी मनास्थितिका आरोप प्रकृति पर करके भागभिन्यजन करता है । सौन्दर्यानुभूति जो काव्यका आधार है प्रकृतिसे सम्बन्धित है । यद्यपि इसमे नाना प्रकारकी सामाजिक भावस्थितियोंका योग रहता है तो भी आलम्बन स्प यह सौन्दर्यानुभूति कराती ही है। जो रससिद्ध कवि प्रकृतिके मर्मको जितना अधिक गहराईके साथ अवगत कर लेता है वह उतना ही सुन्दर भावाभिव्यजन कर सकता है।
भैया भगवतीदासने प्रकृतिके चित्रोंको किसी मनःस्थिति विशेषकी पृष्ठभूमिके रूपमे प्रस्तुत किया है। मानवीयभावनाओको प्रकृतिके समा