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हिन्दी - जैन- साहित्य-परिशीलन
नासा लोल कपोल मझार । सब शोभाकी राखन हार । ताहि देखि सुक वनमें जाय । लज्जित है निवसे अधिकाय || कवि बनारसीदासने अपने अर्द्धकथानकमे आत्मचरितकी अमिव्यंजना करते हुए आक्षेपाल्कारका कितना अच्छा समावेश किया है । कवि कहता है
शंख रूप शिव देव, महाशंख बनारसी । दोक मिले अवेध साहिब सेवक एकसे ॥
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भैया भगवतीदास और बनारसीदासने इलेपाल्कारकी भी यथास्थान योजना की है । "अकृत्रिम प्रतिमा निरखत सु "करी न घरी न भरी न धरी" मे करीन भरीन और धरीन पदके तीन तीन अर्थ है। मोह अपने जालम फॅसाकर बीचको किस प्रकार नचाता है, कविने इसका वर्णन विचित्रालंकारमं कितना अनूठा किया है ।
नटपुर नाम नगर अति सुन्दर, तामें नृत्य हाँहि चहुँ ओर । नायक मोह नचावत सबको, ल्यावत स्वांग नये नित ओर ॥ उछरत गिरत फिरत फिरका दें, करत नृत्य नाना विधि धार । इहि विधि जगत नीव नाचत, राचत नाहि वहाँ सुकिशोर ॥ कवि वनारसीदासने आत्मलीलाओका निरूपण विरोधाभास अलकारम करते हुए लिखा है
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"एकमें अनेक है अनेक हीमें एक है सो, एक न अनेक कुछ कह्यो न परतु है ।"
इसी प्रकार वृन्दावन और द्यानतरायने भी विरोधाभासको सुन्दर योजना की है। परिकर, समासोक्ति, उल्लेख, विभावना और यथास्य अलंकारोंका प्रयोग जैन काव्योंमें यथेष्ट हुआ है।
हिन्दी जैन काव्योंमें प्रकृति-चित्रण
कविताको अकृत करने और रसानुभूतिको बढ़ानेके लिए कवि प्रकृतिका आश्रय ग्रहण करता है। अनादिकालसे प्रकृति मानवको सौन्दर्य