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प्रतीक योजना
तैसो एक आत्मा अनन्त रस पुगुल, दोहूके संयोगमें विभावकी भरनि है |
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यद्यपि यहाँ उदाहरणालंकार है, परन्तु कविने नदी प्रवाहके प्रतीकद्वारा भावका उत्कर्ष दिखलानेमे सफलता प्राप्त की है । कवि बनारसीदासने अपनी प्रतीकोको स्वय स्पष्ट करते हुए लिखा है
कर्म समुद्र विभाव जल, विपय कपाय तरंग | बढ़वानल तृष्णा प्रवल, ममता धुनि सर्वंग ॥ भरम भवर तामे फिरै, मन जहाज चहुँ ओर । गिरे, फिरे चूडै तिरै उदय पवनके जोर ॥
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विषयी जीव भ्रमवश ससारके सुखोको उपादेय समझता है । कवि भगवतीदासने प्रतीको द्वारा इस भावका कितना सुन्दर विश्लेषण किया है
सूवा सयानप सब गई, सेयो सेमर वृच्छ । आये धोखे आमके, यापै पूरण इच्छ ॥ यापै पूरण इच्छ वृच्छको भेद न जान्यो । रहे विषय लपाय, मुग्धमति भरम भुलान्यो ॥ फलमॉहि निकसे तूल, स्वाद पुन करू न हुआ । यहै जगतकी रीति देखि, सेमर सम सूवा ॥ इस पद्यमें सूवा आत्माका प्रतीक, सेमर ससारके कमनीय विषयोका प्रतीक, आम आत्मिक सुखका प्रतीक और तूल सासारिक विषयोकी सारहीनताका प्रतीक है । कविने आत्माको ससारकी रीति-नीति से पूर्णतया सावधान कर दिया है।
आत्मबोधक प्रतीकोमे सुबा, हंस, शिवनायक प्रतीक प्रधान है । इन प्रतीको द्वारा आत्मा के विभिन्न स्वस्पोकी अभिव्यजना की गयी है | सूवा उस आत्माका प्रतीक है, जो विकारों और प्रलोभनोकी ओर आकृष्ट होती है । विश्वके रमणीय पदार्थ उसके आकर्षणका केन्द्र बनते है, पर