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१९४ हिन्दी-जैन-साहित्य परिशीलन वह उन आकर्षणोको किसी भी समय टुकरा कर स्वतन्त्र हो जाती है,
और साधना कर निर्वाणको पाती है। कवि बनारसीदास, भगतीदास, रूपचन्द, बुधनन, भागचन्द, दौलतराम आदि कवियाने आत्माकी इसी अवस्थाकी अभिव्यंजना स्वा-प्रतीक द्वारा की है । कवि धानतरायने हस प्रतीक-द्वारा आत्माको समता गुण ग्रहण करनेका उपदेश दिया है। इस प्रतीकसे आत्माकी उस अवस्थाकी अभिव्यन्ना की है, जो अवस्था अणुवेग धारण करनेसे उत्पन्न होती है । कवि कहता है
सुनहु हंस यह सीख, सांख मानो सदगुर की। गुरुकी आन न लोपि, लोपि मिथ्यामति उरकी ॥ उरकी समता गहौ, गहाँ आतम अनुमा सुख ।
सुख सल्प थिर रहै, रहै जगमें उदास रुख । शिवनायक प्रतीक-द्वारा उस शनिशाली आत्माका विश्लेषण किया है, नो मिथ्यात्व, राग, द्वेप, मोहके कारण परतन्त्र है। परन्तु अपनी वास्तविकताका परिज्ञान होते ही वह प्रकाशमान हो जाती है। आत्मा अद्भुत शक्तिशाली है, यह स्वभावतः राग, द्वेष, मोहसे रहित है; शुद्धबुद्ध और निरंजन है। कवि इसको सम्बोधन कर बुद्धि-द्वारा कहलता हैइक बात कहूँ शिवनायकी, तुम लायक टोर ऋहाँ भटके। ग्रह कौन विचक्षण रीति गही, वितु देखहि अमन सौं भटके ।। अनह गुण मानो तो साख कहूँ, तुम खोलत क्यों न पटै घटके। चिन भूरति आप विराजत हो, तिन सूरत देखे सुधा गटके ॥
शरीरत्रोधक प्रतीकाम चशे, पिंजरा, भृमा, कॉच और मंच्या आदि प्रमुख है । ये नमी प्रतीक शरीरका विभिन्न दशाओंकी अभिव्यंजनाके लिए आये हैं। कवि भृवरदासने चखेंके प्रतीक द्वारा शरीरकी गत्तविक स्थितिका निस्पण करते हुए कहा है