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वर्तमान काव्यधारा और उसकी विभिन्न प्रवृत्तियाँ
महो अलंकार विहाय रत्न के, भूषितांग हो ।
अनूप रत्नन्न
तने हुए अम्बर अंग-अंग से, दिगम्बराकार विकार शून्य हो ॥ समीप ही जो परदेव दूष्य है, नितान्त श्वेताम्बर सा वना रहा। अग्रंथ निर्द्वन्द महान संयमी, वने हुए हो निजधर्म के ध्वजी ॥
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वस्तु-वर्णनमे 'महाकाव्य की दृष्टिसे घटना- विधान, दृश्ययोजना और परिस्थिति-निर्माण- ये तीन तत्त्व आते है । वद्ध मानकी कथावस्तुमे प्रायः दृश्य-योजना तत्त्वका अभाव है । घटनाविधान और परिस्थिति निर्माण इन दोनो तत्त्वोकी बहुलता है । कविने इस प्रकारका कोई दृश्य आयोजित नही किया है जो मानवकी रागात्मिका हत्तन्त्रीको सहज रूपमे झंकृत कर सके । घटनाओंका क्रम मन्थर गति से बढ़ता हुआ आगे चलता है जिससे पाठक के सामने घटनाका चित्र एक निश्चित क्रमके अनुसार ही प्रस्तुत होता है ।
महाकाव्यकी आधिकारिक कथावस्तुके साथ प्रासंगिक कथावस्तुका रहना भी महाकाव्यकी सफलता के लिए आवश्यक अग है । प्रासंगिक कथाएँ मूलकथामे तीव्रता उत्पन्न करती हैं।
चर्द्धमान काव्यमें अवान्तर कथा रूपमे चन्दनाचरित, कामदेवसुरेन्द्रसवाद तथा कामदेव द्वारा वर्द्धमानकी परीक्षा ऐसी मर्मस्पर्शी अवान्तर कथाऍ है, जिनसे जीवनके आनन्द और सौन्दर्यका आभास ही नही होता प्रत्युत सौन्दर्यका साक्षात्कार होने लगता है ।
जगत् और जीवनके अनेक रूपों और व्यापारोंपर विमुग्ध होकर कविने अपनी विभूतिको चमत्कारपूर्ण ढगसे आविर्भूत किया है। भावोको