________________
हिन्दी - जैन- साहित्य- परिशीलन
सदाचारी व्यक्तिका इस प्रकारका परिवर्तन क्रमशः होना चाहिये था, पर लेखकने इस परिवर्तनको त्वरित वेगसे दिखलाया है; जिससे कुछ reaterfवकता आ गई है ।
मनोवती के चरित्र - विलेपण के समक्ष अन्य पात्रांके चरित्र बिल्कुल दव गये हैं, जिससे औपन्यासिकता के विकास में बाधा पहुँची है।
इस उपन्यासकी शैली में प्रभावोत्पादकताका अभाव है। मनोभावांकी अभिव्यञ्जना करनेके लिए जिस सजीव और प्रवाहपूर्ण भापाकी आवव्यकता होती है, उसका इसमें प्रयोग नहीं किया शैली और गया है। हॉ, कथोपकथनसे पात्रोके चरित्र-चित्रणमं कथोपकथन तथा कथाकै विकासमें पर्याप्त सहायता मिली है। जब महारथ अपनी पुत्री मनोवती से कहता है कि - "इस नियमका कदाचित् निर्वाह न हो; क्योंकि जबतक तू हमारे घर में है, तबतक तो सब कुछ हो सकता है; परन्तु ससुराल जानेपर भारी अड़चन पढ़ेगी ।" उस समय निस्संकोच और निर्भीकता पूर्वक उत्तर देती है । पिताका इस प्रकार पुत्रीसे कहना और पुत्रीका संकोच न करना खटकता - सा है । अन्य स्थोंमें कथोपकथन मर्यादायुक्त और स्वाभाविक है ।
भाषा चलती-फिरती है । अनेक स्थलोंपर लिगढोप भी विद्यमान है । उहाँ एक ओर तड़की, सुनहरी, चौघरे, जोति, खटा-पटास दिखी आदि देशी शब्द पर्याप्त मात्रामें पाये जाते हैं, वहाँ दूसरी ओर अफताब, महताब, मुराद, फसाद, कर्तृत, खातिरदारी, हासिल, हताश आदि अरबीफारसीके शब्दोंकी भी भरमार है। आरा निवासी होनेके कारण भोजपुरी का प्रभाव मी भापापर है। फिर भी बोल-चालकी भाषा होनेके कारण शैली सरलता आ गई है ।
यद्यपि औपन्यासिक तत्त्वोकी कसौटीपर, यह वरा नहीं उतरता है, पर प्रयोगकालीन रचना होनेके कारण इसका महत्त्व है। हिन्दी उपन्यासों