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हिन्दी जैन काव्यों प्रकृति-चित्रण
दोय ।
सूरज चाँद बैल ये काल रैहट नित फेरे
सोय ॥
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कवि अनुभूतिके सरोवरमे उतरकर प्रकृतिमे भावनाओका आरोपकर रहा है कि कालस्पी अरहट सूरज चाँद स्पी वैलो- द्वारा रातदिन रूपी घड़ों में प्राणियो के आयु स्पी जलको भर-भरकर खाली कर देता है ।
भावोत्कi के लिए कविने प्रकृतिकी अनेक स्थलोंपर भयकरता दिखखायी है। ऐसे स्थानोपर कविकी लेखनी चित्रकारकी वृद्धिका -सी बन गई है । शब्द पिघल - पिघलकर रेखाऍ वन गये है और रेखाएँ शब्द बनकर मुखरित हो उठी हैं, कवि कहता है कि शीत ऋतुमे भयकर सदी पड़ती है यदि इस ऋतु वर्षा होने लगे, तेज पूर्वी हवा चलने लगे तो शीतकी भयकरता और भी बढ़ जाती है। ऐसे समय में नदी के किनारे खडे ध्यानस्थ मुनि समस्त श्रीतकी बाधाओंको सहन करते रहते है
विरक उहे हैं ।
बादल
झूम
रहे हैं ॥
शीतकाल सबही जन काँपे, खड़े जहाँ वन झंझावायु बहे वरसा ऋतु, बरसत तहाँ धीर तटनी तट चौपट, ताल पालमे कर्म सधैं सँभारू शीतकी बाधा, ते मुनि तारन तरण
दहे है ।
कहे हैं ॥
इसी प्रकार ग्रीष्म ऋतुकी भयकरता दिखलाता हुआ कवि गर्मीका चित्रण करता है
भत देह सब दागे ।
भूख प्यास पीडे उर भन्तर प्रजलै अग्नि स्वरूप धूप ग्रीघम की ताती बाल झालसी लागे ॥ तपै पहार ताप तन उपजै को पित्त दाह ज्वर जागे । इत्यादिक ग्रीसकी बाधा सहत साधु धीरज नहीं त्यागे ॥
ज्ञान वैभवसे युक्त आत्माको वसन्तका रूपक देकर कवि द्यानतरायने कितना सुन्दर चित्र खींचा है यह देखतेही बनता है । कविकी दृष्टिमे प्रकृतिका कण कण एक सजीव व्यक्तित्व लिये हुए है जिससे प्रत्येक मानव