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उपन्यास
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होती रहती है । परित्यक्ता होकर भी वह अपने नियमोमे शिथिलता नहीं आने देती है । बाईस वर्षों तक तिल-तिलकर जलने पर जव पवनञ्जय उसके महलमे पधारते है तो वह अगाध दयामयी अपना अंकद्वार उनके लिए प्रशस्त कर देती है। जब पवनञ्जय कहते हैं कि-"रानी ! मेरे निर्माणका पथ प्रकाशित करो" । तो वह प्रत्युत्तरमे कहती है-"मुक्तिका राह नै क्या जानें, मै वो नारी हूँ और सदा बन्धन ही देती आयी हूँ।" यहाँ पर नारी-हृदयका परिचय देनेम लेखकने अपूर्व कौशलका परिचय दिया है। __अजनाके चरित्र चित्रणमे एकाध स्थलपर अस्वाभाविकता आ गयी है । गर्भमारसे दबी अजनाका अरण्यमे किशोरी बालिकाके समान दौडना नितान्त अस्वाभाविक है । हॉ, अंजनाके धैर्य, सन्तोष, गालीनता आदि गुण प्रत्येक नारीके लिए अनुकरणीय है।
मित्ररुपमे प्रहस्त और वसन्तमालाका नाम उल्लेखनीय है। वसन्तमालाका साग अद्वितीय है, अपनी सखी अंजनाकै साथ वह छायाकी तरह सर्वत्र दिखलायी पडती है। अजनाके सुखमे सुखी और दुःखमे वह दुःखी है। अननाकी आकाभा, इच्छा उसकी आकाक्षा, इच्छा है। उसका अपना अस्तित्व कुछ भी नहीं है । सखीकी भलाई के लिए उसने अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया है । इसी प्रकार प्रहस्तका त्याग भी अपूर्व है। लेखकने प्रधान पात्रोके सिवा गौण पात्रोमे राजा महेन्द्र, प्रह्लाद आदिके चरित्र-चित्रणम भी पूर्ण सफलता प्रास की है।
कथोपकथनकी दृष्टि से इस उपन्यासका अत्यधिक महत्त्व है । पवनजय न और प्रहस्तके वार्तालाप कुछ लम्बे हैं, पर आगे
चलकर भाषणोमे समितताका पूरा खयाल रखा गया है। कथोपकथनो द्वारा कथाकी धारा कितनी क्षिप्रगतिसे आगे बढ़ती है, यह निम्न उद्धरणोसे स्पष्ट है
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