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हिन्दी - जैन-साहित्य-परिशीलन
"वह मोह था प्रहस्त, मनकी एक क्षण-भंगुर उमंग । निर्बलताके अतिरेक में निकलनेवाला हर वचन निश्चय नहीं हुआ करता । और मेरी हर उमंग मेरा बन्धन बनकर नहीं चल सकती । मोहकी रात्रि अब बीत चुकी है प्रहस्त । प्रमादकी वह मोहन- शय्या पवनंजय बहुत पीछे छोड़ आया है । कल जो पवनंजय था आज नहीं है । अनागतपर आरोहण करनेवाला विजेता, अतीतकी साँकलोसे बँधकर नहीं चल सकता । जीवनका नाम है प्रगति । ध्रुव कुछ नहीं है प्रहस्त, स्थिर कुछ नहीं है । सिद्धात्मा भी निज रूपमें निरन्तर परिणमनशील है । ध्रुव है केवल मोह - जड़ताका सुन्दर नाम- ।”
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" तो जाओ पचन, तुम्हारा मार्ग मेरी बुद्धिकी है । पर एक बात मेरी भी याद रखना - तुम स्त्रीसे हो। तुम अपने ही आपसे पराभूत होकर आत्म-प्रतारणा कर रहे हो । घायलके प्रलापसे अधिक, तुम्हारे इस दर्शनका मूल्य नहीं । यह दुर्बलकी आत्म-वंचना है, विजेताका मुक्तिमार्ग नहीं है" ।
इस उपन्यासकी कथावस्तुको प्रकट करनेके लिए शैली लेखकने दो प्रकार की गैलियोका प्रयोग किया हैबोझिल और सरल |
पवनजय और अजनाके प्रथम मिलनके पूर्वकी शैली बोझिल है । भाषा इतनी अधिक सस्कृतनिष्ठ है, जिससे गद्यकाव्य का-सा शब्दाडम्बरसा प्रतीत होता है । पढते - पढते पाठक ऊब-सा जाता है और बीचमे ही I अपने धैर्यको खो देता है । वाक्य लबे होनेके कारण अन्वयमें क्लिष्टता है, जिससे उपन्यासमे भी दर्शनके तुल्य मनोयोग देना पड़ता है ।
मिलने के बादकी शैली सरल है, प्रवाहयुक्त है । अभिव्यक्ति सरल, स्पष्ट और मनोरंजक है । सस्कृतके तत्सम शब्दोके साथ प्रचलित विदेशी शब्दोका व्यवहार भाषामें प्रवाह और प्रभाव दोनो उत्पन्न करता है । मुक्तिदूतकी भापा प्रसादकी भापाके समान सरस, प्राञ्जल और प्रवाहयुक्त
पहुॅचनेके बाहर भागकर जा रहे