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उपन्यास
है। हिन्दी उपन्यासोंमे प्रसादके पश्चात् इस प्रकारको भापा और शैली कम उपन्यासोंमें मिलेगी। वस्तुतः वीरेन्द्रजीका मुक्तिदूत भाषासौष्ठवके क्षेत्रमे एक नमूना है।
मुक्तिदूत जीवनकी व्याख्या है। श्री लक्ष्मीचन्द्र जैनने और प्रस्तावनामें इस उपन्यासका उद्देश्य प्रकट करते हुए
लिखा है-"आजकी विकल मानवताके लिए मुक्तिदूत वय मुक्तिदूत है।"
इसके पात्रोको लेखकने प्रतीक रूपमे रखा है। अजना प्रकृतिकी प्रतीक है, पवनञ्जय पुरुषका, उसका अहभाव मायाका और हनुमान ब्रह्मका । आजका मनुष्य अपने अह (माया) के कारण अपनेको बुद्धिमान तथा शक्तिशाली समझ अपने बुद्धिवादके वलपर विज्ञानकी उत्पत्ति द्वारा प्रकृतिपर विजय पाना चाहता है, पर प्रकृति दुर्जेय है।
भौतिकवाद और विज्ञानवादके कारण हिंसा, द्वेपकी अग्नि भड़क रही है, युद्धके शोले जल रहे है। इसीसे हर व्यक्तिका मन अशान्त है, क्षुब्ध है, विकल है। पर अपने मिथ्याभिमानके कारण वह प्रकृतिपर विजय प्राप्त करनेके लिए नित्य नये-नये आविष्कार करनेमे सलग्न है । प्रकृति उसके इन कार्य-कलापोसे शोकाकुल है तथा पुरुपकी अल्प शक्तिका उपहास करती हुई कहती है-"पुरुष (मनुष्य ) सदा नारी (प्रकृति) के निकट बालक है। भटका हुआ वालक अवश्य एक दिन लौट भायेगा।"
होता भी ऐसा ही है। जब भौतिक संघर्षोंसे मनुष्य आकुल हो उठता है, तब प्रकृतिकी महत्तासे परिचित होता है और उसकी विरामदायिनी गोदमे चला जाता है । मृदुल्ताकी अक्षयनिधि प्रकृति उसे अपने सुकोमल अकमे भर लेती है। इसी समय मनुष्यके समक्ष मानवताका वास्तविक स्वरूप प्रस्तुत होता है। मानवको प्रकृति-द्वारा प्रेरित कर तथा