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हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन अहिसक बनाकर लेखकने बताया है कि तृतीय महायुद्धकी विभीषिका अहिंसा और सयमसे दूर की जा सकती है।
अन्यायका दमनकर मनुष्य पुनः प्रकृतिके समीप आता है और तब उसे हनूमानरूपी ब्रह्मकी प्राप्ति होती है। हातिरेकसे "प्रकृति पुरुषमे लीन हो गयी, पुरुप प्रकृतिमे व्यक्त हो उठा।" जिससे प्रकृतिकी सहज सहायतासे मनुष्यका साथ ब्रह्मसे सदा बना रहे । प्रकृति और पुरुषके मिलनकी शीतल अमियधाराने शीतलताका स्निग्ध प्रवाह प्रवाहित किया, जिससे चारो ओर शान्ति तथा सुखके शतदल विकसित हो उठे।
आजकी व्यस्त मानवतारूपी दानवताके लिए यही मूलमन्त्र है । जब मनुष्य विज्ञानके विनाशकारी आविष्कारोका अंचल छोड़कर सृजनमयी प्रकृतिको पहचानेगा, तभी उसे भगवान्के वास्तविक स्वरूपकी प्राप्ति होगी और विश्वमे मानवताकी चिर समृद्धि कर सकेगा।
इन दृष्टियोसे पर्यवेक्षण करनेपर अवगत होता है कि यह उपन्यास उच्चकोटिका है। लेखकने मानवताका आदर्श त्याग, सयम और अहिंसा के समन्वयमे बतलाया है। औपन्यासिक तत्त्वोकी दृष्टि से भी दो-एक त्रुटियोके सिवा अन्य बातोमे श्रेष्ठ है। भाव, भाषा और शैलीकी दृष्टिसे यह उपन्यास बहुत ही सुन्दर बन पड़ा है।
श्री नाथूराम 'प्रेमी' ने भी बगलाके कतिपय उपन्यासोका हिन्दी अनुवाद किया है। प्रेमीजी वह प्रतिभाशाली कलाकार है कि आपकी प्रतिमाका स्पर्श पाकर मिट्टी मी स्वर्ण बन जाती है। __ मुनिराज श्री विद्याविजयने 'राणी-सुलसा' नामक एक उपन्यास लिखा है। इसमे सुलसाके उदात्त चरित्रका विश्लेपण कर लेखकने पाठको के समक्ष एक नवीन आदर्श उपस्थित किया है। भाषा और कलाकी दृष्टिसे इसमे पूर्ण सफलता लेखकको नहीं मिल सकी है।
१. ब्रह्मप्राप्तिका भर्थ भात्मशुद्धि है।