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हिन्दी-जैन साहित्यका शास्त्रीय पक्ष भैया जगवासी, तू उदास बैंकै जगतसौं एक छै महीना उपदेश मेरो मानु रे।
और संकलप विकल्पके विकार तजि बैठिके एकत्त मन एक और भानु रे ॥ तेरौ घट सर तामैं तू ही है कमल वाको तू ही मधुकर है सुवास पहिचानु रे। प्रापति न है है कछू ऐसौ व विचारत है,
सही है है प्रापति सरूप यौ ही जानु रे। शब्दोको तोड़े-मरोड़े बिना ही भाव को भीतर तक पहुंचानेका कविने पूरा यत्न किया है । कवि वनारसीदासके सिवा मैया भगवतीदास, स्पचन्द, भूधरदास, बुधजन, द्यानतराय, दौलतराम और वृन्दावनका भी भाषाकी परखमे विशेष स्थान है। भैया भगवतीदासकी भाषा तो और भी प्राञ्जल, धारावाहिक और प्रसादगुणसे युक्त है। भाषाको भावानुकूल चनानेका इन्हें पूरा मर्म शात था, इसी कारण इनके काव्यमे विषयों के अनुसार माषा गम्भीर और सहज होती गयी है। निम्न पद्यमे मापाकी स्वच्छता दर्शनीय है
नवते अपनो जी आपु लख्यो, तबतें जु मिटी दुविधा मन की। यो शीतल चित्त भयो तबही सब, छाँद दई ममता तन की। चिन्तामणि जब प्रगन्यौ घर में, तब कौन जु चाह करै धन की। नो सिद्धमें आपमें फेर न जानै सो, क्यों परवाह करै जन की ॥
'मिटी दुविधा मनकी' और 'छाड़ दई ममता तनकी' इन वाक्योम कविने मापाकी मधुरिमाके साथ जिस भावको व्यक्त किया है, वह वास्तवमें भाषाकै पूर्ण पाण्डित्यके विना संभव नहीं । इन वाक्योंका गठन भी इतनी कुशलता और सूक्ष्मतासे किया है, जिससे भावाभिव्यञ्जनमे चार चाँद लग गये है। वास्तवमै इनके काव्यमे भावके साथ भाषा भी