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१४८ हिन्दी-जैन-साहित्य परिशीलन करम भरम जग तिमिर हरन खग, उरग लखन पग शिवमग दरसि । निरखत नयन भविक जल बरखत, हरखत अमित भविक जन सरसि ॥ मदन कदन जिन परम धरम हित, सुमिरत भगत भगत सव हरसि । सजल जलद तन मुकुट सपत फल, कमठ दलन जिन नमत बनरसि । ___ उपयुक्त पद्यमे समस्त ह्रस्ववर्णोंने रस और माधुर्यकी वर्षा करनेमे कुछ उठा नही रखा है। इसकी सरसता, विशदता, मधुरता और सुकुमारता ऐसा वातावरण उपस्थित कर देती है, जिससे व्यामवर्णके पार्श्वप्रभुकी कमनीयता, महत्ता और प्रभुता भक्तक हृदयमे सन्तोष और शीलताका सचार किये बिना नहीं रह सकती। शब्दोकी मधुरिमाका कवि वनारसीदासको अच्छा परिज्ञान था । वस्तुतः ह्रस्व वणोंमें जितनी कोमलता और कमनीयता होती है, उतनी दीर्घ वर्णोंमें नहीं । इसी कारण कवि अगले पद्यमे भी लघुस्वरान्त अक्षरोको प्रयोग करता हुआ कहता है
सकल करमखल दलत, कमठ सठ पवन कनक नग। धवल परमपद रमन जगत जन अमल कमल खग ॥ परमत जलधर पवन, सजल घन सम तन समकर । पर अब रजहर जलद, सकल जन नत भव भय हर। यम दलन नरक पद छय करन, अगम अतट भवजल तरन । पर सवल मदन बन हर दहन, जय जय परम अभय करन ॥
इस छप्पयमे कविने मापाकी जिस कारीगरीका परिचय दिया है, वह अद्वितीय है । जिस प्रकार कुशल शिल्पी छैनी और हथौड़े द्वारा अपने भावोंको पापाण-खण्डोमे उत्कीर्ण करता है, उसी प्रकार कविने अपनी शब्द-साधना द्वारा कोमलानुभूतिको अंकित किया है।
कविने भाषाको भाव-प्रवण बनानेके लिए कथोपकथनात्मक शैली का भी प्रयोग किया है । संसारी जीवको सम्बोधन कर वार्तालाप करता हुआ कवि किस प्रकार समझाता है, यह निम्नपद्यसे स्पष्ट है