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हिन्दी-जैन साहित्यका शास्त्रीय पक्ष १७ १२ वी गतीके कवि विनयचन्द्र सूरिकी अपभ्रश भापामे अपूर्व मिठास है । भापाकी स्वरलहरीमें विश्वका सगीत गूंजता है। भावप्रकाशन कितना अनूठा है, यह निम्नपदसे स्पष्ट है
नेमिकमरु सुमरवि गिरनारि । सिद्धी राजल कन-कुमारि । श्रावणि सखणि कंदुय मेहु । गजइ विरहिनि शिन्हइ देहु । विज्ज झवकाइ रक्खसि जेव । नेमिहि विणु सहि सहियइ केम। सखी भणइ सामिणि मन हरि । दुजन तणा में वंचिति पूरि। गयर नेमि तट विणठउ काइ । भछह अनेरा बरह सयाइ ।
-प्राचीन गुर्जर काव्य संग्रह परवती जैनकवियोम भापाकी दृष्टिसे कवि बनारसीदासका सर्वोत्कृष्ट स्थान है। आपकी भापा मनोरम होनेके साथ, कितनी प्रभावोत्पादक है, यह निम्न पद्मसे स्पष्ट है । सगीतकी अवतारणा स्थान-स्थानपर विद्यमान है। प्रगस्त होने के साथ भापामे कोमलकान्तता और प्रवहमानता भी अन्तनिहित है। भापाकी लोच-लचक और हृदयद्रावकता तो निम्न पद्यका विशेष गुण है।
काज विना न करै निय उद्यम, लान बिना रन माहिं न जूम। डील विना न सधै परमारथ, शील विना सवसौं न भरू नेम विना न लहै निहचैपद, प्रेम विना रस रीति न चूसै। ध्यान बिना न थमै मन की गति, ज्ञान विना शिवपंथ न सूझै॥
वास्तवमे कवि बनारसीदास भापाके बहुत बडे पारखी है। इनके सुन्दर वर्ण-विन्यासमे कोमलता किलकारियाँ भरती है, रस छलकता है और माधुर्य बाहर निकलने के लिए वातायनमेंसे झॉकता है। नाद सौन्दर्यके साधन छन्द, तुक, गति, यति और लयका जितना सुन्दर सन्तुलित समन्वय इनकी माषामें है, अन्यत्र वैसा कठिनाईसे मिलेगा। निम्न पद्यमे संगीत केवल मुखरित ही नहीं हुआ, बल्कि स्वर और तालके साथ मूर्तरूपमें उपस्थित है।