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________________ 386 हिन्दी - जैन- साहित्य-परिशीलन अभिव्यक्ति के साथ भापासे कितनी भावप्रवणता है । प्रेपणीयतत्त्वकी पर कविको कितनी है, यह सहजम ही जाना जा सकता है। ढह-सुहेण । सावलेट | तो गहिय चन्दन्हासा उहेण । हक्कारित लक्खणु लड्डु पहरूपहरू किं करहि खेठ । तुहु एक्के चक्के महु पद्द पुणु आर्य कवणु गण्णु । किं सीह (हि) होइ सहाउ अण्णु । तं विसुर्णेवि बिफ्फुरियाहरेण । मेल्लिट रहनु लच्छीहरेण । -स्वयम्भू रामायण ७५/२२ श्रीराहुलनीने इसका हिन्दीमें अनुवाद यो किया है- तो गहिय चन्द्रहासायुधेहिं । इक्कारेट लक्ष्मण दशमुखेहिं । ले ग्रहरु प्रहरुका करहि क्षेप । तुह एको धक्को सावलेप | ममतें पुनि आहि कवन गण्य | का सिंहह होइ स्वभाव अन्य। सो सुनिया विस्फुरिता धरेहिं मेखंडे यांग लक्ष्मीधरेहिं ॥ भाषाको शक्तिशाली बनानेके लिए कवि पुष्पदन्तने समासान्त पका प्रयोग अत्यधिक किया है। निम्न उदाहरण दर्शनीय है चिप-कालिंटि-काल-पात्र -जलहर-पिहिय-महंतरालओ । 'धुम-गय-नाण्ड-मण्डलुड ढाविय-चल-मचारि मेलभो । अविरल-सुसल-खरिस-चिरधारा-चारिस भरंव-भूमलो । हय-नवियर-पयाव- पसरुग्गय करू वण-गील-हलो || - मादिपुराण (२९-३०) इसकी हिन्दी छायावि-कालिंदी-काल- नवजलधरछादित नभंतरालमा । घुतानगंढ-मंडल डड्डाविय चल-सत्ता-लिमेलमा । अविरल - मुसल - सद्दश थिर धारा वर्ष भरत-भूतला । हृत-रविकर प्रताप श्रसर उद्गत तक नील शाहला ॥
SR No.010039
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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