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________________ दशवाँ अध्याय हिन्दी-जैन साहित्यका शास्त्रीय पक्ष हिन्दी-जैन साहित्यके विभिन्न अग और प्रत्यगोका परिचय प्राप्त कर लेनेके अनन्तर इस साहित्यका शास्त्रीय दृष्टिसे यत्किञ्चित् अनुशीलन करना भी आवश्यक है । अतः शास्त्रीय दृष्टिकोणसे विवेचन करनेपर ही इसकी अनेक विशेषताएँ ज्ञात की जा सकेगी। __इस अभीष्ट दृष्टिकोणके अनुसार भापा, छन्द, अलंकार योजना, प्रकृतिचित्रण, सौन्दर्यानुभूति, रसविधान, प्रतीकयोजना और रहस्यवादका विश्लेषण किया जायगा । सर्वप्रथम जैन साहित्यकी भाषाका विचार करना है कि इस साहित्यमें प्रयुक्त भाषा कैसी है, इसमे शास्त्रीय दृष्टि से कौन-कौन विशेषताएँ विद्यमान हैं । भावों और विचारोकी अभिव्यञ्जना भापाके बिना असम्भव है। हिन्दी-जैन काव्योंका भाषाकी दृष्टिसे बड़ा ही महत्त्व है। अपभ्रंश और पुरानी हिन्दीसे ही आधुनिक साहित्यिकभाषाका जन्म हुआ है। _ जैन लेखक आरम्भसे ही भाषाकै रूपको सजाने और परिष्कृत बनानेमे सलग्न रहे हैं। सरस, कोमल, मधुर और मजुल शब्द सुबोध, सार्थक और स्वाभाविक रूपमे प्रयुक्त हुए हैं। शब्दयोजना, वाक्याशोका प्रयोग, वाक्योकी बनावट और भाषाकी लाक्षणिकता या ध्वन्यात्मकता विचारणीय है। अपभ्रश भाषाके कार्योंमे भाषाका विकासोन्मुख रूप दिखलायी पड़ता है । ऐसा प्रतीत होता है कि भाषा लोकभाषाकी ओर तेजीसे गमन कर रही है । पाठक देखेंगे कि निम्नपदमें कोमल और परुष भावनाओंकी भाषा
SR No.010039
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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