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१६२ हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन
ऐसे पुरुप पहार उड़ावन, प्रलय पचन तिय वेद पयापै। धन्य धन्य ते साधु साहसी, मन सुमेह जिनको नहिं कॉप।
चौदह मात्राके चाल छन्दम कविने भावनाओं के मारोह-अवरोहका कितना सजीव और हृदय-प्राह्य निरूपण किया है, यह निम्न पदम दर्शनीय है।
यो भोग विपै अति भारी, तपत न कभी तनधारी ।
जो अधिक उदै यह आवै, तो अधिकी चाह बढावै ॥ ल्यात्मक छन्दोमे हरिगीतिका छन्दका स्थान प्रमुख है । इसमे सोलह और बारह मात्राओंके विरामसे अछाईस मात्राएँ होती है । प्रत्येक चरणम लयके सचरणके लिए ५ वी, १२ वी, १९ वीं और २६ वी मात्राएँ लघु होती है । अन्तिम दो मात्राओमे उपान्त्य लघु और अन्त्य दीर्घ होती है। ल्य-विधानके लिए आवश्यक नियमोका पालन करना भी छन्द-माधुर्यके लिए उपयोगी होता है। कवि दौलतरामने अपनी छहढाला मे हरिगीतिका छन्दोका सुन्दर प्रयोग किया है। निम्न पद्यका शुति-माधुर्य काव्यको कितना चमत्कृत कर रहा है, यह स्वयमेव स्पष्ट है
अन्तर चतुर्दश भेद वाहिर संग दशधाते टलें। परमाद तजि चउकर मही लखि समिति इति चलें। जग सुहितकर सबमहितहर श्रुतिसुखद सवसंशय हरै। भ्रमरोग-हर जिनके वचन मुखचन्द्रत अमृत झरे ।
-छहढाला, छठी दाल जैन साहित्यम सस्कृत छन्द और पुरातन हिन्दी छन्दोके साथ आधुनिक नवीन छन्दोंका प्रयोग भी पाया जाता है। मुक्तकछन्द और गीतोंका प्रयोग आज अनेक जैन कवि कर रहे हैं।
मुक्तकछन्द लिखनेवाले श्री.कवि चैनसुखदास न्यायतीर्थ, श्री पं० दरवारीलाल सत्यमक्त, कवि खूबचन्द पुष्कल, कवि वीरेन्द्रकुमार, कवि