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हिन्दी - जैन-साहित्यमे अलंकार-योजना
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ईश्वरचन्द्र प्रभृति हैं । भावनाओकी समुचित अभिव्यंजना के लिए अनेक नवीन छन्दोंका प्रयोग किया है। आज जैन प्रवन्धकाव्योमे सभी प्रचलित छन्दोका व्यवहार किया जा रहा है । गीतोमें भावनाकी तरह छन्द भी अत्याधुनिक प्रयुक्त हो रहे हैं।
हिन्दी - जैन साहित्य में अलंकार - योजना
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काव्यके दो पक्ष है— कलापक्ष और भावपक्ष | जैसे मानव-शरीर और प्राणोवा, समवाय है, उसी प्रकार कलापक्ष काव्यका शरीर और भावपक्ष प्राण है । दोनो आपस मे सम्बद्ध हैं । एकके अभावमे दूसरेकी ' सुस्थिति सम्भव नहीं । भाषा अलकार, प्रतीक योजना प्रभृति कलापक्षके अन्तर्गत हैं और अनुभूति भावपक्षके । कोई भी कवि भावको तीव्र करने, व्यञ्जित करने तथा उनमे चमत्कार लानेके लिए अलकारोका प्रयोग करता है । जिस प्रकार काव्यको चिरन्तन बनानेके लिए अनुभूतिकी गहराई और सुक्ष्मता अपेक्षित है उसी प्रकार उस अनुभूतिको अभिव्यक्त करनेके लिए, चमत्कारपूर्ण अलकृत शैली की भी आवश्यकता है ।
हिन्दी - जैन कवियोकी कविता- कामिनी अनाड़ी राजकुलाङ्गनाके समान न तो अधिक अलकारोंके बोझसे दबी है और न ग्राम्यबालाके समान निराभरणा ही है । इसमे नागरिक रमणियोके समान सुन्दर और उपयुक्त अलकारोंका समावेश किया गया है । कवि बनारसीदास, भैया1 भगवतीदास और भूघरदास जैसे रससिद्ध कवियोंने अभिव्यजनाकी चमत्कारपूर्ण शैलीमे बड़ी चतुराईसे अलकार योजना की है। वास्तविकता यह है कि प्रस्तुत वस्तुका वर्णन दो तरहसे किया जाता है -- एकमे वस्तुका यथातथ्य वर्णन - अपनी ओरसे नमक मिर्च मिलाये बिना और दूसरीमें कल्पनाके प्रयोग द्वारा उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक आदिसे अलंकृत करके अंग-प्रत्यगके सौन्दर्यका निरूपण किया जाता है । कविक्री प्रतिभा प्रस्तुत