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________________ कथा-साहित्य ९३ तन्त्र के लिए शाप है, धुन है, जो उसमेसे ही असावधानतासे उठता है और उसी तन्त्रको खाने लगता है ।" "राजा उस तन्त्रके लिए आवश्यक है ! क्यो आवश्यक है । इसलिए कि राजाओ द्वारा परिपालित परिपुष्ट विद्वानोंकी किताबोका ज्ञान यही बतलाता है ! नहीं तो बताइए, क्यों आवश्यक है ? क्या राजाका महल न रहे तो सब मर जाय, उसका मुकुट टूटे तो सब टूट जॉय, और सिंहासन न रहे तो क्या कुछ रहे ही नहीं ? बताइये फिर आवश्यक है ?" जैनेन्द्रजीने इस कथामें जनतन्त्र के तत्त्वोका भी यथेष्ट समावेश किया है | कहानी-कलाकी दृष्टिसे यह पूर्ण सफल कथा है। आत्म-समर्पण श्री बालचन्द्र जैन एम० ए०ने पौराणिक उपाख्यानोंको लेकर नवीन शैलीमे कहानियों लिखी है । प्रस्तुत सकल्नमे कई कहानियाँ हैं। इस संकलनकी सबसे पहली कहानी आत्मसमर्पण है। इसमें नारी - प्रतिष्ठाका मूर्तिमान चित्र है । राजुलके वचनोसे नारी-प्रभुत्व साकार हो जाता है - "नारीकी क्रियाएँ दम्भ नहीं होतीं स्वामिन् ! वह सच्चे हृदयसे काम करती है । विलास में पली नारी संयम और साधनाकी महत्ता अच्छी तरह समझती है ।" पुरुषके हृदयमे नारीके प्रति अविश्वास कितना प्रगाढ हैं, यह नेमि कुमारके शब्दोंसे प्रत्यक्ष हो जाता है - "नारी" । नेमिकुमारने आश्चर्यसे उसकी ओर देखा - "क्या तुम सच कह रही हो ।" "साम्राज्यका मूल्य" कहानीमे भौतिक खण्डहरके वक्षस्थलको चीर आध्यात्मिकताका प्रासाद निर्मित किया है । षट्खण्डाधिपति भरतका अहकार बाहुबली के त्यागके समक्ष चूर-चूर हो जाता है । उनके निम्न शब्दों से उनके दम्भके प्रति ग्लानिका भाव स्पष्ट लक्षित होता है- "मैं तो उनके आपका प्रतिनिधि बनकर प्रजाकी सेवा कर रहा हूँ । मेरा कुछ भी नहीं है, मैं भकिंचन हूँ ।"
SR No.010039
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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