SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 92
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हिन्दी - जैन-साहित्य-परिशीलन 'दम्भका अन्त' कहानीमे मानव परिस्थितियोंका सुन्दर चित्रण हुआ है । मनुष्य किस परिस्थितिमे पड़कर अपने हृदयको छुपानेका प्रयत्न करता है, यह कृष्ण के जीवनसे स्पष्ट हो जाता है । कथोपकथन तो इम कहानीका बहुत ही सुन्दर बन पड़ा है। सारी कथाकी गतिशीलताको मनोरम और मर्मस्पर्शी बनानेके लिए संवादोंको लेखकने जीवट बनानेम किसी भी प्रकारकी कमी नहीं की है। "मैंने लोक व्यवहारकी अपेक्षा ऐसा कहा था भगवन्” ! त्रैलोक्य- स्वामीसे कृष्णका जाल प्रच्छन्न न था । नेमिकुमार बोले- "वाणी- हृदयका प्रतिरूप नहीं है, कृष्ण, " "तुम्हारी वाणी और विचारोंमें असंगति है" । अहंकारवश मानव afir faartiपर विजय प्राप्त करनेको कटिवद्ध हो जाता है, अतः द्वीपायन कहता है- "मैं इतनी दूर भागूँगा कि द्वारिकाका मुँह भी न देखना पढ़े और न व्यर्थ ही इतनी हिंसाका पाप भोगना पड़े" । अभिमान के मिथ्याजलधिमं तैरनेवाला कृष्ण अपनेको चतुर नाविकसे कम नहीं समझता; किन्तु जब कमोंके तूफान में पढ उसकी अहनिद्रा भंग हो जाती है, तब उसका हृदय स्वय कह उठता है - "तुम निर्दोष हो जरत् ! भगवान्ने सत्य ही कहा था, मेरे दम्भका अन्त हुआ" । ९४ रक्षाबन्धन मर्मस्पर्शीं है । इसमे करुणा, त्याग और सहनशीलताकी उद्भावना सुन्दर हुई है । मुनियोपर भीषण उपसर्ग आ जानेसे समस्त / नगर करुणाका प्रतिविम्व सा प्रतीत होता है - "जनता सुनियाँके उपसर्ग से त्रस्त है, नृप वचनवद्ध अपनेको असमर्थं जान महलोंमें छुपा है" कहानीकारने मुनि विष्णु कुमारके वचनो द्वारा त्याग और सयमका लक्ष्य प्रकट करते हुए कहलाया है - "दिगम्बर मुनि सांसारिक भोग और विभव के लिए अपने शरीरको नहीं तपाते। उन्हें तो आत्म- सिद्धि चाहिए, वही एक अभिलापा, वही एक शिक्षा" । राजा दम्भ और पाखण्डोको ढकोसल्ला बताते हुए कहता है--" राजाको कोई धर्म नहीं होता मन्त्री
SR No.010039
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy