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हिन्दी - जैन- साहित्य - परिशीलन
कलंकनाटक
इसमे अकलंक और निकलकके महान् जीवनका परिचय है । कथाक छोटा-सा है, प्रासंगिक कथाओका समावेश नही हुआ है। महाराज पुरुषोत्तमने नन्दीश्वर द्वीपमे अष्टाह्निका पर्व के अवसर - पर आठ दिनो के लिए ब्रह्मचर्य ग्रहण किया। साथ ही इनके दोनो पुत्र अकलक और निकलंकने भी आजन्म के लिए ब्रह्मचर्य त्रत ले लिया । जब विवाहकाल निकट आया और विवाहकी तैयारियाँ होने लगी तो पुत्रोने विवाहसे इन्कार कर दिया और वे जैनधर्मकी पताका फहराने के लिए कटिबद्ध हो गये ।
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उस समय बौद्ध धर्मका बोलवाला था, अन्य धर्मोंका प्रभाव क्षीण हो रहा था । शिक्षा-दीक्षा भी उन लोगोके हाथमे थी । अतएव वे दोनो माई वौद्ध-पाठशालामे छुपकर अव्ययन करने लगे । एक दिन बौद्धगुरु जिस पाठको पढ़ा रहे थे वह अशुद्ध था । अतः उसको शुद्ध करने लगे । पर जब माथापच्ची करनेपर भी उस पाठको शुद्ध न कर सके तो वह शालासे बाहर निकलकर घूमने लगे । अकलकने चुपचाप उस पाठको शुद्ध कर दिया । जब लौटकर गुरु आये तो उस पाठको शुद्ध किया हुआ देखकर चकित हुए और विचारने लगे कि अवश्य इनमे कोई जैन हैं । अन्यथा इसे शुद्ध नही कर सकता था अतएव परीक्षाके लिए उन्होंने कई प्रकारके पड्यन्त्र किये, अन्तमं अकलंक और निकलक पकड़े गये । और उन्हें कारागृह बन्द कर दिया गया । प्रातःकाल ही अकलंक और निकलंकको फॉसी होनेवाली थी अतः रातमें वे किसी तरह भाग निकले। रास्तेमं धर्मरक्षा के लिए छोटे भाई निकलंकने प्राण दिये और अकलक जीवित वचकर निकल भागे । विरक्त होकर अकलक जैनधर्मका उद्योत करने लगे।
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महारानी मदनसुन्दरी जैन धर्मकी उपासिका थी, वह रथोत्सव करना चाहती थी, किन्तु बौद्ध राजगुरु उसके इस कार्यमे विघ्न थे । उन्होने कहा कि धार्मिक वाद-विवाद मे पराजित होनेपर ही जैन धर्मका रथोत्सव हो सकेगा अन्यथा नहीं ।
राजगुरुके इस आदेश से रानी चिन्तित रहने लगी। उसने अन्न-जल