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मति -- आर्यपुत्र ! आपका कथन सत्य है तथापि जिसके बहुत से सहायक हो उस शत्रुसे हमेशा शंकित रहना चाहिए ।
नाटक
विवेक-अच्छा कहो, उसके कितने सहायक हैं ? कामको शील मार गिरावेगा । क्रोधके लिए क्षमा बहुत है । सन्तोषके सम्मुख लोभकी दुर्गति होवेगी ही और बेचारा दम्भ-कपट तो सन्तोषका नाम सुनकर छूमन्तर हो जायगा ।
मति - परन्तु मुझे यह एक बढाभारी अचरज लगता है कि जब आप और मोहादिक एक ही पिताके पुत्र हैं तब इस प्रकार शत्रुता क्यों ?
विवेक...... जात्मा कुमतिमें इतना आसक्त और रत हो रहा है कि अपने हितको भूलकर वह मोहादि पुत्रोंको इष्ट समझ रहा है, जो कि पुत्राभास हैं और नरक गतिमे ले जानेवाले हैं।
नाटकमे बीच-बीचमे आई हुई कविता भी अच्छी है । क्षमा शान्तिसे कहती है कि बेटी विधाताके प्रतिकूल होनेपर सुख कैसे मिल सकता है ? जानकी हरन वन रघुपति भवन औ, भरत नरायनको वनचरके बान सों । वारिधिको बन्धन, मयंक अंक क्षयी रोग, शंकरकी वृत्ति सुनी भिक्षाटन वान सों ॥ कर्ण जैसे बलवान कन्याके गर्भ माये, बिलखे बन पाण्डुपुत्र जूभाके विधानसों । ऐसी ऐसी बातें अवलोक जहाँ तहाँ बेटी, fafast feesता विचार देख ज्ञानसों ॥
इस नाटकमे दार्शनिक तत्त्वोका व्याख्यात्मक विवेचन भी प्रायः सर्वत्र
है । भाव, भाषा और विचारोकी दृष्टिसे रचना सुन्दर है ।