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हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन करना असम्भव-सा है। इस युगकी स्फुट कविताओंको प्रधान रूपसे पुरातन प्रवृत्ति और नूतन प्रवृत्ति इन भागोमे विभक्त कियाजा सकता है।
पुरातन पुरातन-प्रवृत्ति के अन्तर्गत वे रचनाएँ आती हैं, जिनमें लोक हृदयका विश्लेषण तो है, पर कलारानीका रूप सॅवारा नही गया है। उसके अघरों में मुस्कान और ऑखोंसे औदार्यकी ज्योतिकी क्षीण रेखा विद्यमान है। दार्शनिक पृष्ठभूमिकी विशेषताकै कारण आचारात्मक नियमोंका विधिनिषेधात्मक निरूपण ही किया गया है। भाव, भाषा सगी प्राचीन हैं, शैली भी पुरातन है। इस प्रकारकी कविता रचनेवालोमे इस युगके आद्य कवि आरा निवासी बाबू जगमोहनदास है। आपका धर्मरनोद्योत' नामक अन्य प्रकाशित है। इसकी कविता साधारण है, पर माव उच्च है।
श्री बाबू जैनेन्द्रकिशोर भाराने मजन-नवरत्न, श्रावकाचार दोहा, वचन-बत्तीसी आदि कविताएँ लिखी हैं। आप समस्यापूर्ति भी करते थे, आपकी इस प्रकारकी कविताओंपर रीति-युगको स्पष्ट छाप है। नख शिख वर्णनके कुछ पद्य भी आपके उपलब्ध है, ये पद्य सरस और श्रुतिमधुर है ।
कविवर उदयलाल, ब्र० शीतलप्रसाद, हंसवा निवासी लक्ष्मीनारायण तथा लक्ष्मीप्रसाद वैद्यकी आचारात्मक कविताएँ भी अच्छी हैं। इन कविताओमे रस, अलकार और काव्यचमत्कारकी कमी रहनेपर भी अनुभूतिकी पर्याप्त मात्रा विद्यमान है।
श्री मास्टर नन्हराम और झालरापाटन-निवासी श्री लक्ष्मीबाईकी कविताओमे माधुर्य गुण अधिक है। आचारात्मक और नैतिक कर्तव्यका विश्लेषण इन कविताओंमे सुन्दर ढंगसे किया गया है। सप्तव्यसनकी बुराइयोका प्रदर्शन कविता और सवैयोमे सुन्दर हुआ है । दर्शन और आचारकी गढ़ बातोको कवियोंने सरस रूपसे व्यक्त किया है।