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हिन्दी - जैन-साहित्य- परिशीलन
तत्त्वार्थसूत्रपर दार्शनिक विवेचन भी रोचक और ज्ञानवर्द्धक है। पण्डितजीकी निवन्कौली बहुत अशोमें हिन्दी साहित्य के सुप्रसिद्ध विद्वान् श्री आचार्य रामचन्द्र शुलकी शैलीसे मिलती-जुलती है। दोनोंकी शैलीमे गम्भीरता, सरलता, अन्वेपणात्मक चिन्तन एव अभिव्यञ्जनाकी स्पष्टता समान रूपसे है । अन्तर इतना ही है कि आचार्य शुक्लने साहित्य और आलोचना विपयपर लिखा है, जब कि पण्डितनीने एक धर्म विशेषसे सम्बद्ध आचार, दर्शन और इतिहासपर |
श्री पं० फूलचन्दनी सिद्धान्तशास्त्रीका भी दार्शनिक निबन्धकारो में महत्त्वपूर्ण स्थान है । आपने तत्त्वार्थसूत्रका विशद विवेचन बडे ही सुन्दर ढगसे किया है । आपके फुटकर ५०-६० महत्त्वपूर्ण निबन्ध प्रकाशित हो चुके हैं | दार्शनिक निवन्धोंके अतिरिक्त आप सामाजिक निबन्ध भी लिखते है । समाजकी उलझी हुई समस्याओको सुलझाने के लिए आपने अनेक निबन्ध लिखे हैं । जैनदर्शनके कर्मसिद्धान्त विपयके तो आप मर्मज्ञ ही हैं; ज्ञानोदयमे कर्मसिद्धान्तपर आपके कई निवन्ध आधुनिक शैलीम प्रकाशित हुए हैं।
श्री प्रोफेसर महेन्द्रकुमार न्यायाचार्यके दार्शनिक निवन्ध भी जैन साहित्यकी स्थायी सम्पत्ति हैं । अकलकग्रन्थत्रयकी प्रस्तावना, न्यायविनिश्चय विवरणकी प्रस्तावना, श्रुतसागरी वृत्तिकी प्रस्तावनाके सिवा आपके अनेक फुटकर निवन्ध प्रकाशित हुए हैं । इन निवन्धोंमे जैनदर्शनके मौलिक तत्व और सिद्धान्तोका सुन्दर विवेचन विद्यमान है। एक साधारण हिन्दीका जानकार भी जैनदर्शनके गूढ तत्त्वोको हृदयगम कर सकता है । आपके निवन्ध निगमनशैलीमें लिखे गये है । प्रधट्टक (Paragraph ) के आरम्भ ही मे समास या सूत्र रूपमे सिद्धान्तोका प्रतिपादन किया गया है । थोडेमे अधिक कहनेकी प्रवृत्ति आपकी लेखनकलामे विद्यमान है !
श्री पं० चैनसुखदास न्यायतीर्थ भी दार्शनिक निवन्धकार हैं।
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