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उपन्यास
का निरीक्षण, मनन, मानवकी प्रवृत्ति और मनोवेगोंकी सूक्ष्म परख, अनुभूत सत्यों और समस्याओंका सुन्दर समाहार इन उपन्यासोमे अत्यल्प है। दुराचारके ऊपर सदाचारकी विजय जिस कौशल के साथ दिखलाई गई है, यह पाठकके हृदयमे नैतिक आदर्श उत्पन्न करनेमे पूर्ण समर्थ है।
यद्यपि जैन उपन्यास अभी भी शैशव अवस्थामे हैं; अनन्त हृदयस्पर्शी मार्मिक कथाओके रहते हुए भी इस ओर जैन लेखकोंने ध्यान नहीं दिया है, तो भी जीवनके सत्य और आनन्दकी अभिव्यञ्जना करने वाले कई उपन्यास हैं । जैन लेखकोंको अभी अपार कथासागरका मन्थन कर रत्न निकालनेका प्रयल करना शेष है। नीचे कुछ उपन्यासोकी समीक्षा दी जाती है__ यह श्रीजैनेन्द्रकिशोर आरा-द्वारा लिखित एक छोटा-सा उपन्यास है। आज हिन्दी साहित्यका अक नित्य नये नये उपन्यासोंसे भरता जा रहा है, र इस कारण आधुनिक औपन्यासिककलाका स्तर पहले
की अपेक्षा उन्नत है; पर 'मनोवती' उस कालका उपन्यास है, जब हिन्दी साहित्यमे उपन्यासोका जन्म हो रहा था, इसी कारण इसमें आधुनिक औपन्यासिक तत्त्वोका प्रायः अमाव है।
महारथ नामके एक सेठ हस्तिनापुरमे रहते थे। वह सौभाग्यशाली लक्ष्मीपुत्र थे, उनकी एक अत्यन्त धर्मनिष्ठ मनोवती नामकी कन्या
_ थी। वयस्क होनेपर पिताने उसकी शादी जौहरी कथावत हेमदत्तके पुत्र बुद्धिसेनसे कर दी, जो बल्लभपुरनिवासी थे। मनोवतीने गुरुसे नियम लिया था कि वह प्रतिदिन गजमुक्ताका पुज भगवान्के सामने चढ़ाकर भोजन करेगी। श्वशुरालयमें जाकर भी उसने अपने नियमानुसार मन्दिरमें गजमुक्ता चढाकर ही भोजन ग्रहण किया। प्रातःकाल नगरकी मालिनने जब गजमोती देखे, तो बहुत प्रसन्न हुई और पुरस्कार पानेके लोमसे बल्लभपुर-नरेशकी
1.१४ मई सन् १९०९मे आपकी मृत्यु हो गई।