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हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन . जैन उपन्यासेकी सुगठित कथावस्तुम घटनाएँ एक दूसरेसे इस प्रकार सम्बद्ध है, कि साधारणतः उन्हे अलग नहीं किया जा सकता और सभी अन्तिम परिणाम या उपसहारकी ओर अग्रसर होती है। कथावस्तुके भिन्न-भिन्न अवयव इतने सुगठित हैं, जिससे इन उपन्यासोंकी रचना एक व्यापक विधानके अनुसार मानी जा सकती है। प्रवाह इतना स्वाभाविक है, जिससे कृत्रिमताका कहीं नाम-निशान भी नहीं है।
कथावस्तुके सुगठनके सिवा चरित्र-चित्रण भी जैन उपन्यासों में विलेपात्मक [ एनेलिटिक] और कार्यकारण सापेक्ष या नाटकीय [डामेटिक ] दोनों ही रीतियोसे किया गया है। चरित्र-चित्रणकी सबसे उत्कृष्ट कला यह है कि अपने पात्रोंको प्राणशक्तिसे सम्पन्नकर उन्हें जीवनकी रंगस्थलीम सुख-दुःखसे ऑखमिचौनी करनेको छोड़ दे। जीवन के घात-प्रतिघात, उत्कर्ष-अपकर्ष एवं हर्ष-विपाद लेखक-द्वारा बिना टीका-टिप्पण किये पात्रोके चरित्रसे स्वतः व्यक्त हो जानेमें उपन्यासकी सफलता है । अधिकांश जैन लेखकोंके उपन्यास मानव चरित्र-चित्रणकी दृष्टिसे खरे उतरते हैं। जिज्ञासा और कौतूहलवृत्तिको शान्त करनेकी क्षमता भी जैन उपन्यासोंमे है।
कथोपकथन वास्तविक जीवनकी अनुरुपताके अनुसार है। जैन उपन्यासोंमे पात्रोंकी वात-चीत स्वाभाविक तथा प्रसंगानुकूल है। निरर्थक कथोपकथनोंका अभाव है। आदर्श कथोपकथन पात्रोंके भावों, प्रवृत्तियों, मनोवेगों और घटनाओकी प्रभावान्वितिके साथ कार्य प्रवाहको आगे बढ़ाता है। परिस्थितियोंके अनुसार पात्रोंके वार्तालापम परिवर्तन कराकर सिद्धान्तों, आचार-व्यवहारोंका दिग्दर्शन भी कराया गया है।
जैन उपन्यासों के आधार पुरातन कथानक हैं, जिनमें नर नारी, उनके • सांसारिक नाते-रिश्ते, उनके राग-द्वप, क्रोध-करुणा, सुख-दुःख, जीवनसंघर्ष एवं उनकी जय-पराजयका निरूपण किया गया है। नैतिक तथ्य या आदर्शका निरूपण जैन उपन्यासोमे प्रधानरूपसे विद्यमान है। जीवन