________________
१५४
हिन्दी-जैन साहित्य-परिशीलन
छन्द-विधान मानवकी भावनाओ और अनुभूतियोंकी सनीव अभिव्यनना साहित्य है और ये भावनाएँ तथा अनुभूवियाँ कल्पना लोककी वस्तु नहीं है, किन्तु हमारे अन्तर्जगत्की प्रच्छन्न वस्तु हैं। साहित्यकार लय और छन्दके माध्यमसे अपनी अनुभूतियोकी अचल तन्मयतामे, एकात्म अनुभवकी भावनामें विभोर हो कलाको चिरन्तन प्राणतत्त्वका स्पर्श कराता है। अतएव छन्द कविके अन्तर्जगत्की वह अभिव्यक्ति है, जिसपर नियमका अंकुश नहीं रखा जा सकता, फिर भी भिन्न-भिन्न स्वाभाविक अभिव्यक्तियोंके लिए स्वरके आरोह और अवरोहकी परम आवश्यकता है। स्पन्दन, कम्पन और धमनियोमे रकोष्णका सचार लय और छन्दके द्वारा ही सम्भव है। गानके स्वर और लयको सुनकर अन्तरकी रागिनीका उद्रेक इतना अधिक हो जाता है, मावनाएँ इतनी सघन हो जाती है कि अगले पद या चरणको सुनने अथवा पढ़नेकी उत्कठा जागृत हुए बिना नही रह सकती। गूंजते स्वरकी पृष्ठभूमिपर नूतन मसण भावनाएँ अभिनव रमणीय विश्वका सुजन करने लगती हैं। अतः अत्मविभोर करने या होनेके लिए काव्यमे छन्द विधान किया गया है।
छन्द-विधान नाद-सौन्दर्यकी विशेषतापर अवलम्बित है । यह कोई बाहरी वस्तु नही, प्रत्युत जीवन तत्त्वोंकी सजीव अभिव्यञ्जनाके लिए भाषाका विधान है। यह विधान काव्यके लिए बन्धन कभी नहीं होता, अपितु लय-सौन्दर्यकी वृद्धि और पोषण करनेके निमित्त एक ऐसी आधारशिला है, जो नाद-सौन्दर्यको उच्च, नम्र, समतल, विस्तृत और सरस बनानेमे सक्षम है । साधारण वाक्यमें जो प्रवाह और अमता लक्षित नहीं होती, वह छन्द व्यवस्थासे पैदा कर ली जाती है। भापाका भव्य-प्रयोग छन्द-विधान कविताका प्राणापहारक नहीं अपितु धनुषपर चढी प्रत्यचाके तुल्य उसकी शक्तिका वर्धक है। जिस प्रकार नदीकी स्वाभाविक धाराको तीव्र और प्रवहमान बनानेके लिए पक्के पार्सेकी आवश्यकता होती है,