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छन्द-विधान
उसी प्रकार भावनाओ और अनुभूतियोंको प्रभावोत्पादक बनानेके लिए
छन्दोकी आवश्यकता है। सीधे-सादे गद्य के वाक्योमें जोश नहीं रहता और न प्रेषणीयतत्त्व ही आ पाता है, अतएव भाषाके लाक्षणिक प्रयोगके लिए लय और छन्दका उपयोग प्राचीन कालसे ही मनीषी करते आ रहे हैं। स्वर- माधुर्य और काव्य चमत्कार के लिए भी लयात्मक प्रवृत्तिका होना आवश्यक है । पदावलियोको भावुकतापूर्ण और स्मरणीय बनाने के लिए भी छन्दके साँचेमें भावनाओको ढालना ही पडता है ; अन्यथा प्रेषणीयतत्त्वका समावेश नही हो सकता । यो तो बिना छन्दके भी कविता की जा सकती है, पर वह निष्प्राण कविता होगी। उसमे जीवन या गति नहीं आ सकेगी । अतएव इच्छित स्वरसाधनके लिए छन्द आज भी आवश्यक विधान है । यह स्वाभाविक लयके स्वरैक्य और समरूपताकी रक्षा के लिए अनिवार्य सा है । भापाकी स्वाभाविक लय- प्रवहणता के लिए छन्दका बन्धन भी अकृत्रिम और अनिवार्य सा है । चुश्त भावनाओकी अभिव्यञ्जनाके लिए यह विधान उतना ही आवश्यक है, जितना शरीरक स्वरयन्त्रको शक्तिशाली बनानेके लिए उच्चारणोपयोगी अिवयवका सगक्त रहना ।
जैन कवियोंने अपने काव्यमें वार्णिक और मात्रिक दोनों ही प्रकारके छन्दोंका प्रयोग किया है । वार्णिक छन्दमे वणाँके लघु-गुरुके अनुसार क्रम और सख्या आदिसे अन्ततक समरूपमे रहती है और मात्रिक छन्दमे मात्राओकी सख्या, यति नियमके साथ निश्चित रहती है, अक्षरोकी न्यूनाघिकताका खयाल नहीं किया जाता है ।
जैन काम्योमे दोहा, चौपाई, छप्पय, कवित्त, सवैया इक्तीसा, सवैया तेईसा, अडिल्ल, सोरठा, पत्ता, कुसुमलता, व्योमावती, घनाक्षरी, पद्धरी, तोमर, कुडलिया, वसन्ततिलका आदि सभी छन्दोका प्रयोग किया है । दूहा, दोहा, छप्पय, कवित्त, सवैये और घनाक्षरी जैनकवियोंके विशेप छन्द रहे है | अपभ्रश कालसे लेकर १९ वी सतीके अन्ततक जैनकवियोने
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