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हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन
छप्पय, कवित्त और सवैयोका बड़ी ही बारीकीसे प्रयोग किया है। एक सच्चे कलाकारके समान मीनाकारी और पच्चीकारी जैनकवि करते रहे है। अपभ्रंश कविताओंमे दोहाके सैकड़ों भेद-प्रभेदकर नवीन प्रयोग किये गये हैं। सन्तयुगमे लावनी और पद भी विपुल परिमाणमे लिखे गये हैं। इन सभी पदोंमे संगीतका प्रभाव इतनी प्रचुर मात्रामे विद्यमान है, जिससे आध्यात्मिक रस बरसता है। मधुर रस काव्यमे सुन्दर ध्वनि योजनासे ही निप्पन्न होता है। कोमलपदरचनाने नादविशेपका सन्निवेश करके आनन्दको और भी आहादमय बनानेका प्रयास किया है।
संस्कृत छन्द वसन्ततिलका, मालिनी, भुजगप्रयात, शार्दूलविक्रीडित और मंदाक्रान्ताका प्रयोग भी जैनकवियोंने कान्यके भावोको बॉधनेके लिए ही नहीं किया, किन्तु राग और तालपर कोमलकान्तपदावलियोंको बैठ कर अमृतकी वर्षा करनेके लिए किया है। अतएव यहाँ एकाध संगीतका लययुक्त उदाहरण प्रस्तुत किया जाता है
भुजंगप्रयात तुमी कल्पनातीत कल्यानकारी। कलंकापहारी भवांभोधितारी । रमाकंत अरहंत हंता भवारी । कृतांतांतकारी महा ब्रह्मचारी ॥ नमो कर्मभेत्ता समस्तार्थ वेत्ता । नमो तत्त्वनेता चिदानन्दधारी। प्रपये शरण्यं विभो लोक धन्यं । प्रभो विघ्ननिम्नाय संसारतारी ॥
-वृन्दावन विलास पृ० ६८ शार्दूलविक्रीडितको गारवा राग और अपा तालम, भुजगप्रयातको विलावल राग और दादरा तालमे एवं वसन्ततिलकाको भैरव राग और झुमरा तालमे कवि मनरगलालने गाया है। मनरगका चोवीसी पूजापाठ संगीतकी दृष्टिसे अद्भुत है। इसमें प्रायः सभी प्रमुख संस्कृतके छन्दोंका प्रयोग कविने बड़ी निपुणतासे किया है। वार्णिकवृत्तोंको श्रुतिमधुर बनानेका कविने पूरा प्रयास किया है। न, म, त, र, ल और व वणांकी