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हिन्दी - जैन साहित्यका शास्त्रीय पक्ष
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उपर्युक्त पद्यमे 'री' की आवृत्ति प्रवाहमे तीव्रता प्रदान कर रही है। मानवीय भूलोका परिणाम कवि अगुलि -निर्देश द्वारा बतला रहा है । लम्बी कविताओ में एकरसता दूर करनेके लिए छन्दपरिवर्तनके साथ पद या अक्षरावृत्ति भी की गयी है । लयमे परिवर्तन होते ही मानस के भावलोकमे सिहरन आ जाती है और अभिनव लहरियो द्वारा नवरूपका संचार होता है । भाव और छन्दोका परिवर्तन मणिकाचन सयोग उपस्थित कर रहा है । कवि दौलतरामने निम्न पद्यर्मे भाषाका रंगरूप कितना संवारा है । ग्रहशील्ता और प्रसाद गुण कूट कर भरे गये है । फालतू और भरतीके शब्द नहीं मिलेंगे, वाक्य भावानुकूल बडे और छोटे होते गये हैं ।
अव मन मेरा वे, सीख वचन सुन मेरा । भजि जिनवरपद वे, जो विनशै दुख तेरा ॥ विनशै दुख तेरा भवधन केरा, मनवचतन जिन चरन भनौ । पंचकरन व राख सुज्ञानी मिथ्यामतमग दौर तजो ॥ सिष्यामतमगपगि अनादितें तें चहुँगाति कीन्हा केरा । अवहूँ चेत अचेत होय मत, सीख वचन सुनि मेरा ॥ वाक्ययोजना और पदसघटनकी दृष्टिसे भी जैन हिन्दी साहित्य में भाषाका प्रयोग उत्तम हुआ है। 'आँख भर लाना', 'धुन लगना', 'चित्र बन जाना', 'दमपर आ बनना' 'पत्थरका पानी होना, झोंपरी जरन लागी, कुँआके खुदाये तव कौन काज सरि है", 'ढचर बैठना', 'ढेर हो जाना' तीन-तेरह आदि मुहावरोके प्रयोग द्वारा भाषाको शक्तिशाली बनाया गया है ।
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इस शताब्दी के कवियोकी भाषा विशुद्ध, सयत और परिमार्जित खड़ी बोली है। कवियोंने भाषाको प्रवाहपूर्ण, सरस, सरल, प्रसादगुणयुक्त, चुटीली और बोधगम्य बनानेकी पूरी चेष्टा की है। लाक्षणिकता और चित्रमयता भी आजकी भाषामे पायी जाती है।