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हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन भरमार है। कवि भूधरदासने हेतृत्प्रेभाका कितना सुन्दर समावेश किया है। कल्पनाकी उडानके साथ भावोकी गहराई भी आश्चर्यजनक है।
काउसग्गा-मुद्रा धरि वनमें, साढे रिपम रिद्धि तज दीनी । निहचल अंग मेरु है मानों, दोऊ भुजा छोर जिन दीनी ॥ फंसे अनन्त जन्तु जग-चहले, दुःखी देख करना चित लीनी । काटन काल तिन्हें समरथ प्रभु, किधौं बाँह ये दीरघ कीनी ॥
भगवान्की कायोत्सर्ग स्थित मुद्राको देखकर कवि उत्प्रेक्षा करता है कि हे प्रभो! आपने अपनी दोनों विशाल भुजाओको ससारकी कीचड़मे फंसे प्राणियों के निकालने के लिए ही नीचेकी ओर लटका रखा है। ऊपरके पद्यमें इसी भावको दिखलाया गया है। ___ भगवान् शान्तिनाथकी स्तुति करता हुआ कव कहता है कि देवलोग भगवान्को प्रतिदिन नमस्कार करते है, उनके मुकुटोंमे लगी नीलमणियोंकी छाया भगवान्के चरणोंपर पड़ती है जिससे ऐसा मालूम पड़ता है मानो भगवान्के चरण-कमलोंकी सुगन्धका पान करने के लिए अनेक भ्रमर ही एकत्र हो गये है-कवि कहता है
शान्ति जिनेश जयो नगतेश हरे भघताप निशेष की नाई। सेवत पाँय सुरासुरराय नमैं सिरनाय महीतलताई ॥ मौलि लगे मनिनील दिपै प्रभुके चरनो झलकै वह शाई । सूंघन पॉय सरोज-सुगन्धि किंधौ चलिये अलि पंकति आई ॥
जैन कवियों ने एक ही स्थानपर उपमेयमें उपमानकी उत्कटताकी सम्भावना कर वस्तूप्रेक्षा या स्वरूपोप्रेक्षाका सुन्दर प्रयोग किया है। वाच्या और प्रतीयमाना दोनों ही प्रकारकी उत्प्रेक्षाओंके उदाहरण वर्द्धमान चरित्रमे आये हैं। कविने वर्द्धमान. स्वामीके रूप. सौन्दर्यका निरूपण नाना कल्पनाओं द्वारा-अलकृत रूपमे किया है। 'रूपकालंकारकी योजना करते हुए कवि बनारसीदासने कहा है कि