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हिन्दी-जैन-साहित्यमें भलंकार-योजना १७॥ निकालना, कुत्तेका सूखी हड्डी चबाकर स्वाद लेना आदि उपमानोके द्वारा अभिव्यक्त की है । उपमालकारका वर्णन हिन्दी जैन साहित्यमे बहुत विस्तारके साथ मिलता है । उपमाके पूर्णोपमा और लुसोपमा इन दोनो प्रधान भेदोंके साथ आर्थी, श्रौती, धर्मटसा, उपमानलसा और वाचकता इन उपभेदोका व्यवहार भी किया गया है। साहश्य सम्बन्ध वाचक शब्द इव, यथा, वा, सी, से, सो, लो, जिमि आदि का प्रयोग भी यथा स्थान मिलता है।
कवि बनारसीदास उपमा और उत्प्रेक्षाके विशेपश है । आपके नाटक समयसारमें इन दोनों अलकारोके पर्याप्त उदाहरण आये है। निम्न पद्यमे कितनी सुन्दर उत्प्रेक्षा की गई है, कल्पनाकी उड़ान कितनी ऊँची है, यह देखते ही बनेगा।
ऊँचे-ऊँचे गढके कंगुरे यो विराजत है, मानो नभ लीलवेको दाँत दियो है। सोहे चिहों उर उपधनकी सघनताई, घेरा करि मानो भूमि लोक घेरि लियो है । गहरी गम्भीर खाई ताकी उपमा बनाई, नीचो करि आनत पताल जल पियो है । ऐसो है नगर यामें नृप को न अंग कोक,
यो ही चिदानन्दसों शरीर भिन्न कियो है। उत्प्रेक्षा अलकारका कवि बनारसीदासने कितने अनूठे ढगसे प्रयोग किया है, भावोत्कर्ष कितना सुन्दर हुआ है-यह निम्न पद्यसे स्पष्ट है ।
थोरे से धका लगे ऐसे फट जाये मानों,
कागदकी पूरी कीघो चादर है चैल की। ससारके सम्बन्धमे विभिन्न प्रकारकी उत्प्रेक्षाएँ कवि रूपचन्द पाण्डे और नयसरिने की है । भागचन्द और बुधचन्दक पदोमे भी उत्प्रेक्षाओंकी