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हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन अनन्तानन्त स्वरूप जीवद्रव्य अनन्तानन्त स्वरूप अवस्था लिये वर्तहिं । काहु जीवद्न्यके परिनाम काहु जीवद्रव्य और स्यों मिलइ नाहीं। याही भाँति एक पुद्गल परमानू एक समय माहिं ना भाँतिकी अवस्था धरै, सो अवस्था अन्य पुद्गल परमानू न्यसौं मिले नाहीं । तातै पुल (परमाणु ) व्यकी अन्य अन्यता जाननी।"
परमार्थवचनिकाकी भापाकी अपेक्षा इनकी 'उपादान निमित्तकी चिट्ठी की भापा अधिक परिपकृत है। यद्यपि हुँदारी भापाका प्रभाव इनकी भाषा पर स्पष्ट लक्षित है, तो भी इस चिट्ठीकी भापामे भावप्रवणता पर्याप्त है। वाक्यों के चयनमे भी लेखकने बड़ी चतुराईका प्रदर्शन किया है। नमूना निम्न है
"प्रथमहि कोई पूछत है कि निमित्त 'कहा, उपादान कहा ताको औरौ-निमित्त तो संयोगरूप कारण, उपादान वस्तुकी सहन शक्ति । ताको व्यौरी-एक च्यार्थिक निमित उपादान, एक पर्यायार्थिक निमित्त उपादान, ताको व्यौरी-दन्यार्थिक निमित्त उपादान गुनभेद कल्पना।"
उपर्युक्त उद्धरणोंसे स्पष्ट है कि बनारसीदासके गद्यमें भावोंके व्यक्त करनेकी पूर्ण क्षमता है। पाठक उनके विचारोसे गद्य-द्वारा अभिज्ञ हो सकते हैं।
संवत् १७०० के आस-पास अखयरान श्रीमाल हुए । इन्होने 'चतुर्दश गुणस्थान चर्चा' नामक स्वतन्त्र ग्रन्थ तथा कई स्तोत्रोंकी हिन्दी वचनिकाएँ लिखीं। लेखकने सैद्धान्तिक विषयोको बड़े हृदय-प्राह्य ढगसे समझाया है । यद्यपि वाक्योंके सगठनमें त्रुटि है, पर शब्दचयन सार्थक है। तत्सम अब्दोका प्रयोग बहुत कम किया है। दूरान्वय गद्यमें नहीं है । लेखकने व्यंजनावग्रहको समझाते हुए लिखा है
जो अप्रगट भवग्रह होई सो व्यानावग्रह कहिये। अप्रगट जे पदार्थ से तत्काल जान्यां न नाई। जैसे कोरे घासन पर पानीकी बूंद