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________________ १६० हिन्दी-जैन-साहित्य-परिशीलन कोउ तो लहै आनन्द लक्ष कोटि जोरि-जोरि लक्ष लक्ष मान करै लच्छि की तरङ्ग में ॥ कोट महाशूरवीर कोटिक गुमान करे, मो समान दूसरो न देखो कोऊ नत में। कहैं कहा 'भया' कछु कहिवे की बात नाहि, सब जग देखियतु राग रस रन में॥ -ब्रह्मविलास पृ०१७ मात्रिक कवित्त । चेतन नींद वही तुम लीनी, ऐसी नींद लेय नहिं कोय । काल अनादि भये तोहि सोवत,विन जागेसमकित क्यों होय ॥ निहचै शुद्ध जयो अपनो गुण, परके भाव मिन्न करि खोय। हंस अंश उज्वल है जवही, तवही जीव सिद्धसम होय ॥ -ब्रह्मविलास पृ. २६-२७ छप्पय छन्दमें इसी कविने अनुभूति, कल्पना और बुद्धि इन तत्त्वाका अच्छा समन्वय किया है। रूप सौन्दर्यके साथ मावसौन्दर्य भी अभिव्यक्त हुआ है। अपने अन्तस्तलके ज्वारको मानवके मगलके लिए बड़े ही मुन्दर ढगसे कविने अभिव्यजित किया है। कविकी कविताविलासकं खारे समुद्रको अपेय समझकर विपथगाके मधुर तीरको प्राप्त करनेके लिए साधन प्रस्तुत करते हैं। कई छप्पयम वो कविने उल्लास और आहादकी मादकताका अच्छा विश्लेपण किया है। जैन तीर्थंकरोंकी लुतियोंके सिवा अन्य रोंकी व्यंजनामें भी छप्पयका प्रयोग किया गया है। द्वित्व वोंने संगीतात्मकताको और बढ़ा दिया है जो अरहंत सुनीव, जीव सब सिद्ध मणिजे । आचारज पुन जीव, नीव उपझान गणिजे ॥ साधु पुरुप सब नीव, जीव चेतन पर राजै । सो तेरे घट निकट, देख निज शुद्धि विराने ॥
SR No.010039
Book TitleHindi Jain Sahitya Parishilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1956
Total Pages259
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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