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हिन्दी - जैन- साहित्य- परिशीलन
परम्परा अपभ्रगकालसे लेकर आजतक चली आ रही है। इसमे कोई आश्चर्य नहीं कि राजस्थानमे अनेक गद्य ग्रन्थ अभी भी अन्चेपकोंकी प्रतीक्षा कर रहे है ।
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जैन लेखकोने उपन्यास या नाटककै रूपमे प्राचीनकालमे गद्य नहीं लिखा । कुछ कथाएँ गद्यात्मक रूपमे अवश्य लिखी गई। प्राचीन संस्कृत और प्राकृतके कथाग्रन्थोके अनुवाद भी ढूंढारी भाषामे लिखे गये, जिससे सर्वसाधारण इन कथाओको पढ़कर धर्म-अधर्म के फटको समझ सके । वस्तुतः जैन गद्यकारोने अपने प्राचीन ग्रन्थोंका हिन्दी गद्यमे अनुवाद कर गद्य साहित्यको पल्लवित किया है । अनेक कथाग्रन्थोंका तो भावानुवाद भी किया गया है, जिससे इन लेखकोंकी गद्य-विपयक मौलिक प्रतिभाका सहज परिज्ञान हो जाता है । अनेक तात्त्विक और आचारात्मक ग्रन्थोंकी टीकाऍ भी हिन्दी गद्यमे लिखी गयी, जिनसे दुरुह ग्रन्थ सर्वसाधारणके लिए भी सुपाठ्य वने ।
१७वी शताब्दी के मध्यभागमे राजमल पाण्डेयने गद्यमे समयसारपर टीका लिखी | इस टीकाने क्लिष्ट और अगम्य तात्त्विक चर्चाको अत्यन्त सरल और सरस बना दिया। इसके गद्यकी भाषा द्वढारी है, यह राजस्थानी भापाका एक भेद है । कविवर बनारसीदासको नाटक समयसारकै चनानेकी प्रेरणा इसी टीकासे प्राप्त हुई । इसकी भापामे विपयको स्पष्ट करनेकी क्षमता है और जिस बातको यह कहना चाहते हैं, सीधे-सादे ढगसे उसे कह देते हैं । लेखकका भापापर पूरा अधिकार है, उसमे विश्लेपण और विवेचनकी पूरी शक्ति है । संस्कृतके कठिन शब्दोको अपनी भाषामे उसने नहीं आने दिया है, शक्तिभर हिन्दीके पर्यायी शब्दों द्वारा विपयका स्पष्टीकरण किया गया है । भाषामे प्रवाह अपूर्व है, पाठक बहता हुआ fares arrest प्राप्त कर लेता है । समासान्त प्रयोगोका प्रायः अभाव है । परिचितसे सरल तत्सम शब्दका प्रयोग भाषामें माधुर्य के साथ भावाभिव्यक्तिकी क्षमताका परिचय दे रहा है । यद्यपि आजके युगमे यह