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नवाँ अध्याय हिन्दी जैन गद्य साहित्यका क्रमिक विकास
और विभिन्न प्रवृत्तियाँ हिन्दी जैन गध साहित्य : पुरातन
(१४वीं शती से १९वीं शती तक) जिसमे वाक्योंकी नाप-तौल, शब्द और वाक्योंका क्रम निश्चित न हो तथा जो प्रतिदिनकी बोल-चालकी भापामे लिखा जाय, उसे गद्य कहते हैं। प्रतिदिनके व्यवहारकी वस्तु होनेके कारण पद्यकी अपेक्षा गद्यका अधिक महत्त्व है। परन्तु विश्वकै समस्त साहित्यमे पद्यात्मक साहित्यका प्रचार सुदूर प्राचीनकालसे चला आ रहा है । मानव स्वभावतः सगीत-प्रिय होता है, अतएव उसने अपने भाव और विचारोकी अमिव्यञ्जना भी सगीतात्मक पद्योंमें की है। यही कारण है कि गद्यात्मक साहित्यकी अपेक्षा पद्यात्मक साहित्य प्राचीन है। जैन लेखकोने पद्यात्मक साहित्य तो रचा ही; पर गद्यात्मक साहित्य भी विपुल परिमाणमे लिखा । साधारण जनता गद्यम अभिव्यजित भावनाओको आसानीसे ग्रहण कर सकती थी, अतएव उत्तरीय भारतमें अनेक गद्य रचनाएँ १४वी शताब्दीके पहले भी लिखी गई। __ जैन हिन्दी साहित्यका निर्माण केन्द्र प्रधानतः जयपुर, आगरा और दिल्ली रहा है। अतः जैन लेखको द्वारा लिखा गया गद्य राजस्थानी और ब्रजभाषा दोनों में पाया जाता है। राजस्थानमे गद्य लेखनकी अखण्ड