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पद्मनिका अपहरण करता है । सौभाग्यसे तपस्वियो द्वारा उसका परित्राण होता है और वह अपने पिताके पास चली आती है । रत्नेन्दु उसे प्राप्त करनेके लिए भ्रमण करता है । इसी भ्रमणमे उसकी एक धर्मात्मा वृद्ध श्रावकसे भेट होती है, जो अपने जीवनको मानवसे देव बनानेका इच्छुक है। उसकी अभिलापा वनखडके देवालयोंमें स्थित रत्नेन्दुसे टकराती है । रत्नेन्दु उस मरणासन्न भावकको णमोकार मन्त्र सुनाता है । मन्त्रके प्रभावसे श्रावक उत्तमगति पाता है ।
उपन्यास
रत्नेन्दु किसी कारणवश चम्पा नगरमें जाता है और वहीपर विधिपूर्वक पद्मनि के साथ उसका पाणिग्रहण हो जाता है । कुछ दिनों तक वहाँ रहनेके उपरान्त माता-पिताकी याद आ जाने से वह अपने देश लौट आता है और राज सम्पदाका उपभोग करने लगता है । इसी बीच सर्प विपसे आक्रान्त होकर रत्नेन्दु मूर्छित हो जाता है; पर म्मशानमे पूर्वोक्त श्रावक, जो कि देवगतिको प्राप्त हो गया था, आकर उसका विष हरण कर जीवन प्रदान करता है ।
वसन्त ऋतु रत्नेन्दु ससैन्य उपवनमें विहार करने जाता है और लहलहाते हुए वृक्षको एकाएक सूखा देखकर ससारकी क्षणभंगुरता सोचने लगता है । उसका विवेक जाग्रत हो जाता है और चल पड़ता है आत्मसिद्धिके लिए | थोडी ही देरमे रत्नेन्दु पाठकोंके समक्ष संन्यासी के भेपमे उपस्थित होता है और आत्मसाधनामे रत रहकर अपना कल्याण करता है ।
यह उपन्यास जीवन के तथ्यकी अभिव्यञ्जना करता है । घटनाओकी प्रधानता है । लेखकने पात्रोके चरित्रके भीतर बैठकर झाका है, जिससे चरित्र मूर्तिमान हो उठे हैं। भाषा विषय, भाव, विचार, पात्र और परिस्थितिके अनुकूल परिवर्तित होती गयी है । यद्यपि भाषासम्बन्धी अनेक भूलें इसमे रह गयी हैं, तो भी भाषाका प्रवाह अक्षुण्ण है ।