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हिन्दी - जैन- साहित्य- परिशीलन
यह एक धार्मिक उपन्यास है । इसके लेखक स्वनामधन्य पंडित गोपालदास वरैया हैं । कुशल कलाकार ने इस उपन्यासमे धार्मिक सिद्धान्तोंकी व्यंजन के लिए काल्पनिक चित्रोको इतनी मधुरता और मनोमुग्धतासे खीचा है, जिससे पाठक गुणस्थान जैसे कठिन विषयोको कथा के माध्यमद्वारा सहजमें अवगत कर लेता है ।
सुशीला
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इसका कथानक अत्यन्त रोचक और शिक्षाप्रद है । घटनाएँ शृखलावद्ध नहीं हैं, किन्तु घटनाओंका आरम्भ और अन्त ऐसे कलापूर्ण ढगसे होता है, जिससे पाठककी उत्सुकता बढ़ती जाती है । अन्तमे जीवनके आरम्भ और अन्तकी श्रृंखला स्पष्ट हो जाती है, कलाका प्रारम्भ जीवन मध्यकी आकर्षक घटनासे होता है ।
विजयपुर के महाराज श्रीचन्द्रके सुपुत्र जयदेवकी योग्यतासे प्रसन्न होकर महाराज विक्रमसिंह अपनी रूपगुणयुक्ता सुशीला कन्याका पाणिग्रहण उससे कर देते हैं । सुशीलाकी रूपसुधापर कथावस्तु मॅडरानेवाला पापी उदयसिंह यह सहन न कर सका । कामोत्तेजित होकर उनके विनाशका पड्यन्त्र रचने लगा ।
विवाहानन्तर दोनों विदा हुए। मार्गमे उदयसिंहने टुकछिपकर साथ पकड लिया, सामुद्रिक मार्ग से जानेकी सलाह हुई । सामुद्रिक वायुके शीतल झोकेसे निद्रा आने लगी । उदयसिंह और वल्वन्तसिंह दोनो क्रूर मित्रोने मल्लाहसे खूब घुलमिलकर बातें कीं और धोखा देकर बीचमे ही नौका डुवा दी गयी। नावमे जयदेवका परममित्र भूपसिंह और सुशीलाकी दो-चार सखियाँ भी थीं ।
अब क्या ? जयदेव एक तख्ते के सहारे डूबते-उतराते किनारे लगा । धीरे-धीरे कन्चनपुर पहुँचा । उसकी दयनीय दशा देख रत्नचन्द्र नामक एक प्रसिद्ध जौहरीने आश्रय दिया । जयदेव रत्नपरीक्षामे निपुण था,
१. प्रकाशक, दि० जैन पुस्तकालय, सूरत ।