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उपन्यास
अतएव रत्नचन्द्र उससे अत्यन्त प्रसन्न रहता था। रत्नचन्द्रकी पत्नी रामकुंवरि और पुत्र हीरालाल दोनों विषयासक्त और दुराचारी थे। रामकुँवरिने जयदेवको फंसानेके लिए नाना प्रकारसे मायाजाल फैलाया, पर सब व्यर्थ रहा। जयदेव सरल और सत्पुरुष था, अतएव पापसे भयभीत रहता था । रत्नचन्द्र एक दिन कार्यवश खेटपुर गया। पत्नीके चरित्रपर सन्देह होनेके कारण मार्गमेसे ही लैट आया और आधी रात घर पहुंचा। यहाँ आकार रामकुँवरि और हीरालालके कुकृत्यको देखकर क्रोधसे उसकी ऑखें आरक्त हो गई, इच्छा हुई कि पापीको उचित सजा दी जाय, किन्तु तत्क्षण ही उसे विराग हो गया, वह कुछ न बोला। धीर गम्भीर रनचद उदासीन हो चल पड़ा मुक्तिके पथपर।
प्रातःकाल जयदेव यह सब देख अवाक रह गया । रत्नचन्दका लिखा पत्र प्राप्त हुआ, उसे पढ़कर उसके मुखसे निकला "हा | रलचन्द हमेगा के लिए चला गया। कुछ दिनोतक वह घरका भार सिमेटे रहा, किन्तु रामकुंवरि और हीरालालके दुश्चरित्रसे अवकर वह सम्पत्तिका भार एक विश्वासी व्यक्तिपर छोड़ अज्ञात दिशाकी ओर चल दिया।
इधर कुमारी सुशीलाकी बुरी दशा थी । वह सूर्यपुराके उद्यानके एक वगलेमें मूर्छित पडी थी । उदयसिंहने उसे यहाँ छुपा दिया था। क्रूर उदयसिंहने सतीपर हाथ उठाना चाहा, किन्तु सुशीलाकी रौद्रमूर्ति और अद्भुत साहसको देखकर इका-बक्का रह गया। रेवती उसकी प्यारी सखी थी, उसने सुशीलाको मुक्त करनेके लिए नाना षड्यन्त्र किये पर सुशीलाका पता न चला।
जयदेव जब कचनपुरसे लौट रहा था कि रास्तेमे भूपसिंहसे मुलाकात : हो गयी। दोनों सुशीलाका पता लगानेके लिए व्यग्र थे। उदयसिंहकी ओर1 से दोनोंको आशका थी । भूपसिंहने झट पता लगा लिया कि उदयसिहके : बागके एक बंगलेमे सुशीला एकान्तवास कर रही है। मालिनके वेपमे
जयदेव उसके निकट पहुंचा और दोनोंका परस्पर मिलन हो गया।