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पुरातन गद्य
प्रयोग भी इन्होने किया है। इनकी भाषा हॅूढारी है। छोटे-छोटे वाक्यो मे गम्भीर अर्थ प्रकट करना इनकी वैयक्तिक विशेषता है । भाषामे तत्सम संस्कृत शब्दो के साथ मारवाड़ी प्रयोग भी पाये जाते है। हॉ, अरत्रीफारसीके शब्दों का इनके गद्यमे अभाव है। इनके गद्यको देखनेसे ऐसा मालूम होता है कि इन्होने जानबूझकर अरबी-फारसीके शब्दोका बहिष्कार किया है; क्योकि राजस्थानी भाषामे भी अरवी - फारसीके प्रचलित शब्दोका प्रयोग देखा जाता है । गद्य शैलीकी स्वच्छता इनकी प्रशसनीय है । गद्यका नमूना निम्न प्रकार है-
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"प्रथम लय समाधि कहिये परणामताकी लीनता । निज वस्तु विषै परिणाम करतै । राग दोप मोह मेटि दरसन ज्ञान अपना सरूप प्रतीतिमें अनुभवै । जैसे देह में आपकी बुद्धि थी तैसे आत्मामें बुद्धि धरी । चा बुद्धिस्वरूप मैं तैं न निकसैं, जब ताई तब ताई' निज लयसमाधि कहिये । लय सबद भया निजमें परिणामलीन अर्थं भया । सबद अर्थका ज्ञानपणां ज्ञान भया । तीन भेद लय समाधिके हैं ।"
बंसवानिवासी ५० दौलतरामने पुण्यास्तवकथाकोप, पद्मपुराण, आदिपुराण और वसुनन्दि श्रावकाचार इन चार ग्रन्थोका हिन्दी गद्यमे अनुवाद किया है । इनके गद्यको हिन्दी साहित्यके प्रसिद्ध इतिहासकार प० रामचन्द्रशुक्लने अपरिमार्जित खड़ी बोली माना है। इन गद्य ग्रन्थोकी भाषा इतनी सरल है, जिससे गुजराती और महाराष्ट्री भी इन ग्रन्थोंको बड़े चावसे पढते है । गुजरात और महाराष्ट्रके जैन सम्प्रदायमे इन ग्रन्थोंने हिन्दी भाषा के प्रचारमें बड़ा योग दिया है।
यद्यपि गद्यपर हॅू दारीपन की छाप है, फिर भी यह गद्य खडी बोली के अधिक निकट है । भापाकी सरलता, स्वच्छता और वाक्य गठन इनकी tarai कमनीयता प्रकट करते है । साधारण बोलचालकी भाषाका प्रयोग इन्होंने खुलकर किया है । इनके गद्यमे प्रतिदिनके व्यवहारमे प्रयुक्त
अरबी-फारसी के शब्द भी है, जिससे भाषाका रूप निखर गया है । यद्यपि